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________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल [सम्पादकीय ] श्री अलंकदेव, विद्यानंद और जिनसन-जैसे हुए, कपायभावको लेकर किमी भी जीवका अपने "महान आचार्यों तथा दृमर भी अनक मन, वचन या कायम पीड़ा पहुँचाना नहीं चाहते थे। प्रमिद्ध मुनिया और विद्वानों द्वारा किये गये जिनके इस बातका मदा यन्न रग्बने थे कि किमी प्राणीको उदार म्मरणों एवं प्रभावशाली म्नवनों-संकीतनोंका उनके प्रमादवश बाधा न पहुँच जाय, इमीलिय व अनकान्न के पाठक दृमर वर्षकी मभी किरणों के शुरु दिन में मार्ग शोधकर चलते थे, चलन ममय दृष्टिको म आनंदकं माथ पढ़ चुके हैं और उनपा में जिन इधर उधर नही भ्रमाते थे, गत्रिको गमनागमन नहीं आचार्य महादयकी असाधारण विद्वना. योग्यता, करते थे, और इतनं माधनसंपन्न थे कि मात ममय लकमवा और प्रनिष्ठादिका कितना ही परिचय प्राप्र एकासनस रहते थे-यह नहीं होना था कि निद्राकर चुके हैं, उन म्वामा ममंनभद्रक बाधाहन और वस्था में एक कीटम इमरी कर्वट बदल जाय और शांत मुनि जीवनमें एक बार कटिन विपनिकी भी एक उमकं द्वाग किमी जीवजंतुको बाधा पहुँच जायः व बड़ी भाग लहर आई है. जिम आपका 'अापकाल' पीछी पुम्नकादिक किसी भी वस्तुका दग्व भाल कर कहते हैं । वह विपत्ति क्या थी और ममंतभद्रन उम उठात-धरते थे और मलमत्रादिक भी प्रासुक भूमि कैम पार किया. यह मत्र एक बड़ा ही हृदय-द्रावक तथा बाधार्गहन एकांत स्थानमें क्षेपण कग्न थे । इम विषय है। नाच उमाका, उनके मुनि-जीवन की झाँकी कमिवाय, उनपर यदि काई प्रहार करना ना व उम महिन. कुछ परिचय और विचार पाठकोंक मामने नही सकति व भी नहीं . उपस्थित किया जाना है। जंगलमे यदि हिंस्र जंतु भी उन्हें मनाने अथवा डंममुनि-जीवन मशकादिक उनके शरीरका रक्त पीने थे ना व ममंनभद्र, अपनी मुनिचयांक अनुमार, अहिमा. बलपूर्वक उनका निवारण नहीं कंग्न थे, और न मत्य, अम्नेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामकं पंचम- ध्यानावस्थामें अपने शरीरपर हान वाल चींटी आदि हावतों का यथेष्ट गनिम पालन करते थे: इया-भाषा- जंतुओंके म्वच्छंद विहार को ही गकते थे । इन मव एपणादि पंचममिनियांक परिपालनद्वारा उन्हें निरंतर अथवा इमी प्रकारके और भी किनने हा उपमा पुष्ट बनाने थे, पांचा इंद्रियाक निग्रहमें सदा तत्पर, नथा पर्गपहोंका माभ्यभावम महन करते थे और मनागुनि श्रादि नीनों गुप्तियाक पालनमें धीर और अपने ही कर्मविपाकका चिंतन कर मदा धैर्य धारण सामयिकादि पडावश्यक क्रियाओंक अनुष्ठानम मदा करने थ–दमगंका उममें जग भी दाप नहीं देते थे। मावधान रहन थे । वे पूर्ण अहिंमावतका पालन करने ममनभद्र मायके बड़े प्रं मी . व मदा यथार्थ
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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