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________________ किरण समन्तभद्रका मुनि-जोवन और आपत्काल रखना चाहते थे। वे उसी शुद्ध भोजनको अपने लिये मिद्धि, वृद्धि तथा स्थितिका सहायक मात्र मानते थेकल्पित और शास्त्रानुमादिन समझते थे जिस दातारनं और इसी दृष्टि से उसका ग्रहण करते थे । किमी स्वयं अपन अथवा अपन कुटुबम्के लिये तय्यार शारीरिक बलको बढ़ाना, शरीरको पुष्ट बनाना अथवा किया हो, जो देनके स्थान पर उनकं आने पहले तेजोवृद्धि करना उन्हें उसके द्वाग इष्ट नहीं था; वे ही मौजूद हो और जिसमेंसे दातार कुछ अंश उन्हें स्वादकं लिय भी भोजन नहीं करते थे, यही वजह है कि आप भाजनके ग्रासको प्राय: बिना चबाये हीभक्तिपूर्वक भेंट करकं शेषमें स्वयं संतुष्ट रहना चाहता हा-उसे अपने भाजनक लिये फिर दोबारा प्रारंभ बिना उसका रसास्वादन किये ही-निगल जाते थे। करनेकी कोई जरूरत न हो। आप भ्रामरी वृत्तिम, आप समझते थे कि जो भोजन कंवल दहस्थितिको दातार का कुछ भी बाधा न पहुँचाते हुए, भाजन कायम रखने के उद्देशसे किया जाय उसके लिये रमालिया करते थे। भाजनके समय यदि आगमकथित म्वादनकी ज़रूरत ही नहीं है, उमे ता उदरस्थ कर दोषोमस उन्हें काई भी दोष मालूम पड़ जाता था लेने मात्रकी जरूरत है। साथ ही, उनका यह विश्वाम अथवा कोई अन्तगय मामने उपस्थित हो जाता था था कि रसास्वादन कग्नंस इंद्रियविषय पुष्ट होता है, इंद्रियविषयोंके संवनसे कभी मच्ची शांति नहीं तो व खुशीस उमी दम भोजनको छोड़ देते थे और इम अलाभकं कारण चित्तपर जग भी मैल मिलती, उल्टी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी वृद्धि नहीं लाते थे। इसके सिवाय, आपका भोजन परिमित निरंतर ताप उत्पन्न करती है और उस ताप अथवा और मकारण होता था। श्रागममें मुनियोंके लिये दाहकं कारण यह जीव मंमाग्में अनेक प्रकारकी दुःख परम्परास पीड़ित होता है । इमलिये वे क्षणिक सुग्बके ३२ ग्राम तक भोजनकी आज्ञा है परंतु आप उमम लिये कभी इन्द्रियविषयोंका पुष्ट नहीं करते थे-क्षणिक अक्मर दा चार दस ग्रास कम ही भांजन लेते थे, सुखोंकी अभिलाषा करना ही वे परीक्षावानोंके लिये और जब यह दंग्यते थे कि बिना भोजन किये भी एक कलंक और अधर्मकी बात ममझन थे। आपकी यह चल सकता है-नित्यनियमोंके पालन तथा धार्मिक खाम धारणा थी कि, प्रात्यन्तिक म्वास्थ्य-अविनाशी अनुष्ठानांक मम्पादनमें कोई विशेष बाधा नहीं आना म्वात्मस्थिति अथवा कर्मविमुक्त अनंतज्ञानादि अवस्था तो कई कई दिनके लिए आहारका त्याग करके उपवास की प्राप्ति-ही पुरुषोंका-इम जीवात्माका-स्वार्थ है-स्व. भी धारण कर लेने थे; अपनी शक्तिको जाँचने और प्रयोजन है, क्षणभंगुर भांग-क्षणम्थायी विषयसुग्याउसे बढ़ानेके लिये भी आप अक्सर उपवास किया नुभवन-उनकाम्वार्थ नहीं है क्योंकि तृपानुषंगसे-भागों करने थे, ऊनादर रखते थे, अनेक रसोंका त्याग कर की उत्तरोत्तर श्राकांक्षा बढ़नसे-शारीरिक और मानदन थे और कभी कभी ऐसे कठिन तथा गुण नियम भी ले लेते थे जिनकी स्वाभाविक पृर्निपर ही आपका * शतहदान्मषचलं हि मौख्यं, भाजन अवलम्बित रहता था । वास्तवमें, ममंतभद्र तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजनं, भोजनको इस जीवनयात्राका एक साधन मात्र तापम्तदायामयनीत्यवादीः।।१३।। ममझते थे । उसे अपने ज्ञान, ध्यान और मंयमादिकी -वर्यभूम्तोत्र ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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