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अनेकान्त
[ वर्ष ४
सं यथाशक्ति बूब काम लेते थे घंटों तक कार्योत्सर्ग में स्थित होजाते थे, आनापनादि योग धारण करने थे, और आध्यात्मिक तप की वृद्धिके लिये अपनी शक्तिको न छिपाकर दूसरे भी कितने ही अनशनादि उम्र उग्र बाह्य तपश्चरणका अनुष्ठान किया करते थे । इसके सिवाय, नित्य ही आपका बहुतमा समय सामायिक, स्तुतिपाठ, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, समाधि भावना, धर्मोपदेश, प्रन्थरचना और परहितप्रतिपादनादि कितने ही धर्मकार्यों में खर्च होता था । आप अपने समयको जग भी धर्मसाधनारहित व्यर्थ नही जान देने 1
for दुःखों की कभी शांति नहीं होती। वे समझते थे कि, यह शरीर 'अजंगम' है - बुद्धिपूर्वक परिम्पंदव्यापारहित है - और एक यंत्रकी तरह चैतन्य पुरुषके द्वारा व्यापार प्रवृत्त किया जाता है; साथ ही, 'मलबीज' है - मलम उत्पन्न हुआ है; मलयानि हैमलकी उत्पत्तिका स्थान है; 'गलन्मल' है-मल ही इससे भरता है; 'पति' है - दुर्गंधियुक्त है; 'बीभत्स' है- घृणात्मक 'क्षय' है— नाशवान है-और 'तापक' है - श्रात्मा के दुःखों का कारण है । इस लिये वे इस शरीर स्नेह रखने तथा अनुराग बढ़ाने को अच्छा नहीं समझते थे, उसे व्यर्थ मानते थे, और इस प्रकारकी मान्यता तथा परिगातिका ही आत्महत स्वीकार करते थे । अपनी ऐसी ही विचारपरितके कारण समंतभद्र शरीर से बड़े ही निस्पृह और निर्ममत्व रहते थे- उन्हें भांगों से जग भी रुचि अथवा प्रीति नहीं थी -: वे इस शरीर से अपना कुछ पारमार्थिक काम निकालने के लिये ही उसे थोड़ामा शुद्ध भंजन देते थे और इस बातकी कोई पर्वाह नही करते थे कि वह भोजन मग्वा-चिकना, ठंडा-गरम, हल्का-भारी, वडुआ-कपायला आदि कैसा है ।
इस लघु भोजन के बदले में समन्तभद्र अपने शरीर * स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेप पुं.
स्वार्थो न भांगः परिभंगुरात्मा । तृपानुषंगान च नापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान्सुपार्श्वः ॥ ३१ ॥ जंगमं जंगमनेययंत्रं यथा तथा जीवधृतं शरीरं । arry पूर्ति क्षयि तापकं च स्नेहा वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः ||३२| — स्वयंभूम्तोत्र | "मलबीजं मलयानिं गलन्मलं पृतिगन्धि बीभत्सं । पश्यन्नंगम
रत्नकरंडक |
आपत्काल
इस तरह पर, बड़े ही प्रेमकं साथ मुनिधर्मका पालन करते हुए स्वामी समन्तभद्र जब 'मरणुवक हल्ली । ग्राम में धर्मध्यानमहित आनंदपूर्वक अपना मुनिजीवन व्यतीत कर रहे थे और अनेक दुर्द्धर तपश्चरणो द्वारा अत्मोन्नति
पथमे अग्रेसर हो रहे थे तब एकाएक पर्वसंचित असातावेदनीय के तीव्र उदयसे आपके शरीर में 'भस्मक' नामका एक महागंग उत्पन्न हो गया । इस गंगकी उत्पनिसे यह स्पष्ट है बाह्यं तपः परमदुश्चरमा स्व माध्यत्मिककस्य तपसः परिबृंहणार्थम् ॥८२॥ - स्वयंभू स्तोत्र |
+ ग्रामका यह नाम 'राजावलीकथे' में दिया है। यह 'कांची' के आसपासका कोई गांव जान पड़ता है । * ब्रह्मनेमिदत्त भी अपने 'आराधनाकथाकोष' में ऐसा ही सूचित करते हैं। यथादुर्द्धगनेक चारित्ररत्नरत्नाकरी महान । यावदाते सुखं धीरस्तावत्तत्कायके ऽभवन ॥ महाकर्मोदयाद्दर्दुःखदायकः ।
तीव्रप्रदः कष्टं भस्मकव्याधिसंज्ञकः ॥
- समन्तभद्रकथा. पद्मनं० ४, ५