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________________ किरण १] समन्तभद्रका मुनि-जीवन और आपत्काल ४५ कि समंनभद्रक शरीरमें उम समय कफ क्षीण होगया शुरुशुरूमें उसकी कुछ पर्वाह नहीं की। व स्वच्छाथा और वायु तथा पित्त दानी बढ़ गये थे; क्योंकि पूर्वक धारण किये हुए उपवासों तथा अनशनादि कफक क्षीण हान पर जब पित्त, वायुक साथ बढ़कर तपोंके अवसरपर जिस प्रकार क्षुधापरीषहका सहा कुपित हो जाता है तब वह अपनी गग्मी और तेजी से जठराग्निको अत्यंत प्रदीप्त, बलाढ्य और तीक्ष्ण करते थे उसी प्रकार उन्होंने इस अवसर पर भी, पूर्व कर देता है और वह अग्नि अपनी तीक्ष्णतास अभ्यासकेबलपर, उसे सह लिया। परन्तु इस क्षुधा और . विरूक्ष शरीरमें पड़े हुए भाजनका तिरस्कार करती . __ उस क्षुधामें बड़ा अन्नर था; वे इस बढ़ती हुई क्षुधा हुइ, उस क्षणमात्रमें भस्म कर देती है। जठराग्निकी के कारण, कुछ ही दिन बाद, असह्य वेदनाका अनुइस अत्यंत तीक्ष्णावस्था को ही भस्मक' गंग कहते भव करन लगे; पहले भाजनसं घंटोंके बाद नियत है । यह गंग उपेक्षा किये जाने पर-अर्थात, गरु, समय पर भूग्वका कुछ उदय होता था और उस स्निग्ध शीतल, मधुर और श्लेष्मल अन्नपानका __ समय उपयांग के दूसरी ओर लगे रहने आदिके यथेष्ट परिमागामे अथवा तृप्तिपर्यंत संवन न करने कारण यदि भोजन नहीं किया जाता था ता वह भृग्व पर-शगंरक रक्तमांमादि धातुओं को भी भस्म कर मर जाती थी और फिर घंटों तक उसका पता नहीं दता है, महादोबल्य उत्पन्न कर देता है, तृपा, स्वेद, रहता था; परन्तु अब भाजनको किये हुए देर नहीं दाह तथा मूच्छादिक अनक उपद्रव खड़े कर देता है होती थी कि क्षुधा फिरसे आ धनकती थी और और अंत में गंगीको मृत्युमुखमें ही स्थापित करके भोजन न मिलनपर जठगग्नि अपने आसपासक छोड़ता है + । इस गंगकं अाक्रमण पर ममंतभदने रक्त मांमको ही खींच स्वींचकर भस्म करना प्रारम्भ + कट्वादिक्षान्नभुजां नगणां कर देती थी। ममंतभद्रको इमम बड़ी वेदना होती क्षीण कफ मारुतपित्तबृद्धौ। अतिप्रवृद्धः पवनान्विनाऽग्नि थी, क्षुधाकी ममान दृमरी शरीग्वंदना है भी नहीं; भुक्तं क्षणाद्भस्मकगति यम्मान । कहा भी गया हैतस्मादमौ भम्मकमज्ञकोऽभू "क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना।" दुपक्षिताऽयं पचते च धातून । -इति भावप्रकाशः। इम नीव क्षुधावदनाकं अवमरपर किमीस "नरं क्षीणकफ पित्तं कुपितं मामतानुगम। भोजनकी याचना करना, दाबाग भोजन करना स्वाष्मणा पावकस्थान बलमग्नेः प्रयच्छति ।। अथवा गंगापशांतिके लिये किमीको अपने वाम्त नथा लब्धबलो देहे विरुले मानिलाऽनलः । पग्भूिय पचत्यन्नं तैक्षायादाशु मुहुर्मुहुः ॥ अच्छे स्निग्ध, मधुर, शीतल गरिष्ठ और कफकारी पक्वान्नं मनतं धातून शोणितादीन्पचत्यपि । भाजनांक तय्यार कग्नकी प्रेरणा करना, यह मब तता दौर्बल्यमातकान मृत्यु चोपनयेन्नरं ।। उनके मुनिधर्मके विरुद्ध था। इस लिये ममंनभद्र, भुक्तऽन्ने लभने शांनि जीर्णमात्रे प्रताम्यति।। वस्तुस्थितिका विचार करते हुए उम ममय अनेक तृम्बददाहमूच्छोः म्युाधयाऽन्यनिसंभवाः ॥" "तमत्यनिं गुरुस्निग्धशीतमधुरविज्वलैः ।। ___उत्तमोत्तम भावनाओंका चिन्तवन करते थे और अन्नपाननेयेच्छान्ति दीप्तमग्निमिवाम्मभिः ॥" अपने प्रात्माको मम्बोधन करके कहनं थे-"हे -इति चरकः। अात्मन , नृने अनादिकालम इम मंमाग्में परिभ्रमण ननादत धानून शोधाशु मुहुर्मुहः ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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