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करते हुए अनेक बारक- पशु आदि गतियों में दुः क्षुधावेदनको महा है, उसके आगे तो यह तेरी क्षुधा कुछ भी नहीं है । तुझे इतनी तीव्र क्षुधा रह चुकी है जो तीन लोकका अन्न खाजाने पर भी उपशम न हो, परन्तु एक कण खानेको नहीं मिला । ये सब कष्ट तूने पराधीन होकर सहे हैं और इसलिये उनसे कोई लाभ नहीं होमका, अब तू स्वाधीन होकर इस वेदनाको सहन कर । यह सब तेरे ही पूर्व कर्म का दुर्विपाक है । माम्यभावमं वेदनाको सह लेनेपर कर्म की निर्जग हो जायगी, नवीन कर्म नहीं बँधेगा और न आगेका फिर कभी ऐसे दुःखों को उठानेका अवसर ही प्राप्त होगा ।" इस तरह पर समंतभद्र अपने साम्यभावका दृढ़ रखते थे और कषायादि दुर्भावोंका उत्पन्न होनेका अवसर नहीं देते थे । इसके सिवाय, वे इस शरीर को कुछ अधिक भोजन प्राप्त कराने तथा शारीरिक शक्तिको विशेष नीरण न होने देनेके लिये जो कुछ कर सकते थे वह इतना ही था कि जिन अनशनादि बाह्य तथा घोर तपश्चरणको वे कर रहे थे और जिनका अनुष्ठान उनकी नित्य की इच्छा तथा शक्तिपर निर्भर था— मूलगुणों की तरह लाजमी नहीं था - उन्हें वे ढीला अथवा स्थगित करदें । उन्होंने वैसा ही किया भी अब उपवास नहीं रखते थे, अनशन, ऊनोदर वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग और कायक्लेश नामके बाह्य तपोंके अनुष्ठानको उन्होंने कुछ काल के लिये, एकदम स्थगित कर दिया था, भोजन के भी वे अब पूरे ३२ ग्राम लेते थे; इसके मित्राय गेगी मुनिके लिये जो कुछ भी रियायतें मिल सकती थीं वे भी प्रायः सभी उन्होंने प्राप्त कर ली थीं । परंतु यह सब कुछ होते हुए भी, आपकी क्षुधाको जराभी शांति नहीं मिली, वह दिनपर दिन बढ़ती
अनेकान्त
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और तीव्र तीव्रतर होती जाती थी; जठगनलकी ज्वालाओं तथा पित्तकी तीक्ष्ण ऊष्मा शरीरका रसरक्तादि दग्ध हुआ जाता था, ज्वालाएँ शरीर के अंगोंपर दूर दूर तक धावा कर रही थीं, और नित्यका स्वल्प भोजन उनके लिये जग भी पर्याप्त नहीं होता था वह एक जाज्वल्यमान अग्निपर थोड़े से जलके छींटेका ही काम देता था । इसके सिवाय, यदि किसी दिन भोजनका अन्तराय हो जाता था तां और भी ज्यादा ग़ज़ब हो जाता था - क्षुधा राक्षसी उम दिन और भी ज्यादा उम्र तथा निर्दय रूप धारण कर लेनी थी । इस तरहपर समंतभद्र जिस महावेदनाका अनुभव कर रहे थे उसका पाठक अनुमान भी नहीं कर सकते। ऐसी हालत में अच्छे अच्छे धीर वीरोंका धैर्य छूट जाना है, श्रद्धान भ्रष्ट हो जाता है और ज्ञानगुण डगमगा जाता है । परंतु समंतभद्र महामना थे, महात्मा थे, श्रात्म- देहान्तरज्ञानी थे, संपत्तिविपत्ति में समचित्त थे, निर्मल सम्यग्दर्शनके धारक थे और उनका ज्ञान दुःखभावित नहीं था जां दुःखोंके आनेपर क्षीण होजाय *, उन्होंने यथाशक्ति उम्र उम्र तपश्चरणों के द्वारा कष्ट सहनका अच्छा अभ्यास किया था, वे आनंदपूर्वक कष्टोंको महन किया करते थे उन्हें महते हुए खेद नहीं मानते थे +
* श्रदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ । तम्माद्यथाबलं दुग्वैरात्मानं भावयन्मुनिः ॥ -समाधितंत्र | + जो आत्मा और देहके भेद विज्ञानी होते हैं वे ऐसे कष्टों को सहते हुए खेद नहीं माना करते, कहा
भी है
आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृतः । तपमा दुष्कृतं घोरं भुंजानापि न विद्यते ॥
-समाधितंत्र ।