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________________ किरण १] ममन्तभद्रका मुनि-जीवन और आपत्काल और इसलिये, इस संकटके अवमरपर वे जग भी अब तक पालता पा रहा हूँ और जो मुनिधर्म मेरे विचलित तथा धैर्यच्युन नहीं हो सके । ध्येयका एक मात्र प्राधार बना हुआ है उस क्या मैं ममंतभद्रन जब यह देग्वा कि रोग शांत नहीं छोड़ दें ? क्या क्षुधाकी वेदनासे घबगकर अथवा होता, शरीरकी दुर्बलता बढ़ती जारही है, और उस उमसे बचनके लिय छोड़ दूं ? क्या इंद्रियविपय जनित दुर्बलनाकं कारण नित्यकी आवश्यक क्रियाओमें भी म्वल्प सुखके लिये उस बलि दे दूं ? यह नहीं हा कुछ बाधा पड़ने लगी है; माथ ही, प्यास आदिकके मकता । क्या क्षुधादि दुःखोंके इस प्रतिकारसं अथवा भी कुछ उपद्रव शुरू हो गये हैं, तब आपका बड़ी ही इंद्रियविषयनित स्वल्प सुग्वक अनुभवनसे इस चिन्ता पैदा हुई । आप मोचन लगे-"इस मुनिश्रव- देहकी स्थिति मदा एकमी और सुग्वरूप बनी रहेगी ? स्थामें, जहाँ आगमोदित विधिक अनुमार उद्गम- क्या फिर इस दहमे क्षुधादि दुःग्वोंका उदय नहीं उत्पादनादि छयालीस दोषों, चौदह मलदापों और होगा ? क्या मृत्यु नहीं आएगी ? यदि ऐसा कुछ नहीं बनीम अन्तगयांका टालकर, प्रासक तथा परिमिन है तो फिर इन क्षुधादि दुःखों के प्रतिकार आदिमें भाजन लिया जाता है वहाँ, इम भयंकर रोगकी गुण ही क्या है ? उनसे इस देह अथवा देहीका शांनिक लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी कोई उपकार ही क्या बन सकता है ? + मैं दुःखोंसे बचनव्यवस्था नहीं बन सकती । मुनिपदका कायम के लिये कदापि मुनिधर्मको नहीं छोडूंगा; भले ही यह गम्बन हुए, यह गंग प्रायः असाध्य अथवा निःप्रतीकार दह नष्ट हो जाय, मुझे उसकी चिन्ता नहीं है; मंग जान पड़ना है; इमलिय या तो मुझे अपने मुनिपदका आत्मा अमर है, उसे कोई नाश नहीं कर सकता; छोड़ देना चाहिये और या 'सहे.ग्वना' व्रत धारण मैंन दुःखोंका स्वागत करने के लिये मुनिधर्म धारण करके इम शरीरका धर्मार्थ त्यागनके लिये तय्यार हां किया था, न कि उनसे घबराने और बचनके लिए; जाना चाहिय; परंतु मुनिपद कैसे छोड़ा जा सकता मंग परीक्षाका यही समय है, मैं मुनिधर्मको नहीं है ? जिम मुनिधर्मके लिये मैं अपना मर्वम्व अर्पण छोड़ेगा।" इतने में ही अंतःकरणके भीतरसे एक कर चुका हूँ, जिम मुनिधर्मका मैं बड़े प्रमक माथ दुमरी आवाज आई-"ममंतभद्र ! तृ अनेक प्रकारम जैन शामनका उद्धार करने और उसे प्रचार इनमें जो लोग आगमम इन उद्गमादि दोपों तथा ममथ है, तरी बदौलत बहुनस जीवोंका अज्ञानभाव अन्तगयोंका म्वरूप जानते हैं और जिन्हें पिण्ड- तथा मिथ्यात्व नष्ट होगा और व मन्मार्गमें लगेंगः शुद्धिका अच्छा ज्ञान है उन्हें यह बतलानकी जरूरत - -- - नहीं है कि मच्चे जैन माधुओंको भाजनके लिये वैम + क्षुधादि दुःग्वोंके प्रतिकागदिविषयक अापका ही कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह भाव 'स्वयंभूम्तात्र'के निम्न पद्यसं भी प्रकट इन कठिनाइयांका कारण दानागेंकी कोई कमी नहीं होता हैहै: बल्कि भोजनविधि और निर्दोष भोजनकी जटिलता 'क्षुदादिदुःखप्रतिकारतः स्थिनिही उमका प्रायः एक कारण है-फिर 'भम्मक' जैम न चेन्द्रियार्थप्रभवाल्पमोग्यतः । गेगकी शांतिकं लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी ततो गुणां नाम्ति च दहदहिनाना बात ही दृर है। रितीदमित्थं भगवान व्यजिज्ञपन' ॥ १ ॥
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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