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________________ ४८ अनेकान्त [वर्ष ४ यह शासनाद्धार और लोकहितका काम क्या कुछ लोकक आश्रित है और मेग हित मेरे आश्रित है; कम धर्म है ? यदि इस शासनाद्धार और लोकहितकी यह ठीक है कि लोककी जितनी सेवा मैं करना चाहता दृष्टि से हो तू कुछ समयके लिये मुनिपदको छाड़द और था उस मैं नहीं कर सका; परन्तु उस सेवाका भाव अपने भोजनकी योग्य व्यवस्था द्वाग गेगका शान्त मेरे आत्मामें मौजूद है और मैं उसे अगले जन्ममें करके फिग्स मुनिपद धारण कर लेवे तो इममें पूग कम्गा; इम समय लोकहितकी आशापर प्रात्मकौनमी हानि है ? तेरे ज्ञान, श्रद्धान, और चारित्रके हितको बिगाड़ना मुनासिब नहीं है; इसलिये मुझे अब भावको तो इमसे जग भी क्षति नहीं पहुँच सकती, 'सल्लेग्वना' का व्रत ज़रूर ले लेना चाहिये और मृत्यु वह तो हरदम तेरे माथ ही रहेगा; तू द्रव्यलिंगकी की प्रतीक्षामें बैठकर शांतिक साथ इम देहका धर्मार्थ अपेक्षा अथवा बाह्यमें भले ही मुनि न रहे, परंतु त्याग कर देना चाहिये ।" इम निश्चयको लेकर भावोंकी अपेक्षा तो तेरी अवस्था मुनि-जैमी ही होगी, समंतभद्र मल्लेग्वनावनकी आज्ञा प्राप्त करनेके लिये फिर इसमें अधिक मोचने विचाग्नेकी बात ही क्या अपन वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और अनेक सदगुणालंकृत है ? इसे आपद्धर्मके तौरपर ही स्वीकार कर; तेरी पूज्य गुरुदेव । के पास पहुंचे और उनमें अपने गंग परिणति तो हमेशा लोकहितकी तरफ रही है, अब का मारा हाल निवेदन किया। साथ ही, उनपर यह उसे गौण क्यों किये देता है ? दृसगेंके हितके लिये प्रकट करते हुए कि मंग गेग निःप्रतीकार जान पड़ता ही यदि तृ अपने स्वार्थकी थाडीसी बलि देकर- है और गंगकी निःप्रतीकागवस्थामें 'सल्लेग्वना' का अल्प कालके लिये मुनिपदको छोड़कर-बहनोंका शरण लेना ही श्रेष्ठ कहा गया है *, यह विनम्र भला कर मके तो इसम तेरे चरित्र पर जग भी कलंक प्रार्थना की कि-"अब आप कृपाकर मुझे सल्लेग्वना नहीं आ सकता, वह तो उलटा और भी ज्यादा धारण करनेकी श्राज्ञा प्रदान करें और यह आशीर्वाद देदीप्यमान होगा; अतः तु कुछ दिनोंके लिये इम देवें कि मैं माहमपूर्वक और महर्प उमका निर्वाह मुनिपदका मोह छोड़कर और मानापमानकी जग भी करनेमें ममर्थ हा मकँ।" पर्वाह न करते हुए अपने गंगको शांत करनेका यत्न समंतभद्रकी इम विज्ञापना और प्रार्थनाको सुन कर, वह निःप्रतीकार नहीं है; इम गंगमे मुक्त होने कर गुरुजी कुछ देर के लिये मौन रहे, उन्होंने मर्गनपर, स्वस्थावस्थामें. तू और भी अधिक उत्तम गतिमे भद्रके मुग्वमंडल ( चेहरे ) पर एक गंभीर दृष्टि डाली मुनिधर्मका पालन कर मकेगा; अब विलम्ब करने की + 'गजावलीकथे' से यह तो पता चलता है किममन्तजरूरत नहीं है, विलम्बसे हानि होगी।" भद्रके गुरुदेव उम समय मौजूद थे और समन्तभद्र इम तरहपर ममंतभद्र के हृदयमें कितनी ही मल्लेग्वनाकी आज्ञा प्राप्त करनके लिये उनके पास देग्नक विचारोंका उत्थान और पतन होता रहा। गये थे, परंतु यह मालूम नही होमका कि उनका क्या नाम था। अन्तको आपने यही स्थिर किया कि "क्षुदादिदुःग्वोंसे ग्यास * उपमर्गे दुर्भिक्षे जरमि सजायां च निःप्रतीकारे । घबराकर उनके प्रतिकारके लिये अपने न्याय्य निय- धर्माय तनुविमोचनमाहुः मलेखनामार्याः।।१२२।। मोंको तोड़ना उचित नहीं है: लोकका हित वाम्तवमें -त्नांडक।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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