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________________ किरण १] ममन्नभद्रका मुनि-जीवन और आपरकाल - और फिर अपन यांगबलस मालूम किया कि समंत- श्राज्ञाका शिगेधारण कर आप उनके पामसं चल भद्र अल्पायु नहीं है, उसके द्वारा धर्म नथा शासनकं दिय।। अब समंतभद्रका यह चिंता हुई कि दिगम्बर उद्धारका महान कार्य हानका है, इम डिष्टिम सह मुनिवषको यदि छोड़ा जाय तो फिर कौनसा वेष सल्लेग्वनाका पात्र नहीं; यदि उसे सल्लेखनाकी इजाजत धारण किया जाय, और वह वष जैन हो या अजैन । दीगई तो वह अकाल हीमें कालकं गालमें चला अपने मुनिवेषका छोड़न का खयाल आन ही उन्हें जायगा और उममे श्री वीरभगवानके शामन-कार्यको फिर दुःग्य होने लगा और वे साचन लगे-जिम बहुत बड़ी हानि पहुँचेगी; माथ ही, लाकका भी बड़ा दमर वेषको मैं आज तक विकृत + और अप्राकृतिक अहित होगा। यह मब मोचकर गुरुजीन, ममंतभद्र वेष ममझता आरहा हूँ उमे मैं कैम धारण करूँ ! की प्रार्थनाका अम्वीकार करते हुए. उन्हें बड़े ही प्रेम क्या उमीको अब मुझे धारण करना होगा ? क्या के माथ समझाकर कहा-"वन्म, अभी तुम्हाग गुरुजीकी एमी ही श्राज्ञा है ? -हाँ, ऐसी ही आज्ञा मलेम्वनाका समय नहीं आया, तुम्हारं द्वारा शामन- है। उन्होंने स्पष्ट कहा है-'यही मंरी प्राज्ञा है, कार्यके उद्धार की मुझे बड़ी आशा है, निश्चय ही तुम -चाहे जिम वेपको धारणा करला, गंगकं उपशांत धर्मका उद्धार और प्रचार कगंगे, ऐमा मेग अन्तः- हानपर फिरस जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना । करगा कहता है; लाकका भी इम ममय तुम्हारी बड़ा नब ता इस अलंघ्य-शक्ति भवितव्यता कहना चाहियेजरूरत है; इमलिय मंगै यह स्त्राम इच्छा है और यह ठीक है कि मैं वेष (लिंग) का ही मब कुछ नहीं यही मग अाज्ञा है कि तुम जहाँपर और जिम वंश ममझता-उसीको मुक्तिका एक मात्र कारण नहीं में रहकर गंगापशमन योग्य तृप्तिपर्यंत भाजन प्राप्त जानता,- वह दहाश्रित है और दह ही इस आत्मा करमको वहींपर खुशीमे चले जाओ और उमी वेपका का मंमार है; इमलिये मुझ मुमुक्षुका-संसार बंधनाम धागा करला. गेगक नपशान्त होनपर फिल्म छटनके इच्छकका-किसी वेपमें एकान्त श्राग्रह नहीं जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना और अपने मब कामों हा सकना *; फिर भी मैं वेषकं विकृत और अविकृत को मँभाल लेना । मुझ तुम्हारी श्रद्धा और गुणज्ञनापर + : 'ततम्तत्मिद्धयर्थ परमकरुणा ग्रन्थमुभयं । पृग विश्वाम है. इमी लिये मुझ, यह कहनेमें जग भवानवात्याक्षीन्न च विकृतवपापधिग्नः ।। भी संकोच नहीं होता कि तुम चाहे जहाँ जा मकतं । -स्वयंभूम्तात्र हो और चाहे जिस वषका धारण कर मकन हो; मैं . * श्रीपूज्यपादक समाधितंत्रमें भी वेषविषयमें खुशीम तुम्हें ऐमा करनकी इजाजत देता हूँ ।" ऐमा ही भाव प्रतिपादित किया गया है । यथा लिंगं दहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः । गुरुजीक इन मधुर नथा मारगर्भिन वचनोंका नमुच्यन्तं भवात्तम्माने ये लिंगकृनाग्रहाः ।। ८७ ।। सुनकर और अपन अन्तःकरणकी उम आवाजको अर्थान-लिंग (जटाधारण नमत्वादि) देहाश्रित म्मरण करकं ममंतभद्रका यह निश्चय होगया कि है और दह ही आत्माका मंमार है, इम लिये जो ' लोग लिंग (वेष) का ही एकान्न आग्रह रग्बने हैंइमीमें ज़रूर कुछ हिन है, इमलिये आपने अपने उमीको मक्तिका कारण ममझते हैं वे मंमाग्बंधनसे मल्लेबनाके विचारको छोड़ दिया और गुरुजी की नहीं छटने ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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