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________________ ५० अनेकान्त [ वर्ष ४ मैं अपने भोजन के लिये किसी व्यक्ति विशेषको क दूँ मैं अपने भोजन के लिए ऐसे हो किसी निर्दोष मार्गका अवलम्बन लेना चाहता हूं जिसमें ग्वास मेरे लिए किसीको भी भोजनका कोई प्रबन्धन करना पड़े और भोजन भी पर्याप्त रूपमें उपलब्ध होता रहे ।” ऐसे दो भेद जरूर मानता हूँ. और अपने लिये कृत वेष में रहना ही अधिक अच्छा समझता हूँ। इमीसे, यद्यपि, उस दूसरे वेपमें मेरी कोई रुचि नहीं हो सकती, मेरे लिये वह एक प्रकारका उपसर्ग ही होगा और मेरी अवस्था उस समय अधिकतर चलोपसृष्टमुनि जैसी ही होगी; परन्तु फिर भी उस उपमर्गका कर्ता तो मैं खुद ही हंगा न ? मुझे ही स्वयं उम वेषको धारण करना पड़ेगा । यही मेरे लिये कुछ कटकर प्रतीत होता है। अच्छा, अन्य वेष न धारण करूँ तो फिर उपाय भी अब क्या है? मुनिवेषको क़ायम रखता हुआ यदि भांजनादिके विषय में स्वेच्छाचारसे प्रवृत्ति करूँ तो उससे अपना मुनिवेष लज्जिन और कलंकित होता है, और यह मुझमे नही ह। सकता; मैं खुशीमे प्राण दे सकता हूँ परन्तु ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिससे मेरे कारण मुनिवेप अथवा मुनिपदको लज्जित और कलंकित होना पड़े। मुझ से यह नहीं बन सकता कि जैनमुनिकेरूपमें उस पद के विरुद्ध कोई ही नाचरण करू; और इसलिये मुझे अब लाचारी अपने मुनिपदको छोड़ना ही होगा । मुनिपदको छोड़कर मैं 'लक' हो सकता था, परन्तु वह लिंग भी उपयुक्त भोजनकी प्राप्तिके योग्य नहीं है— उम पदधारीके लिए भी उद्दिष्ट भोजनके त्याग का कितना ही ऐसा विधान है, जिससे उस पद की मर्यादाको पालन करते हुए गेगोपशांतिके लिये यथेष्ट भोजन नहीं मिल सकता, और मर्यादाका उल्लंघन मुझसे नहीं बन सकता- इसलिये मैं उस वेष को भी नहीं धारण करूँगा । बिल्कुल गृहस्थ बन जाना अथवा यों ही किसीके आश्रय में जाकर रहना भी नहीं है। इसके सिवाय, मेरी चिरकाल की प्रवृत्ति मुझे इस बात की इजाजत नहीं देती कि यही सब सोचकर अथवा इसी प्रकार के बहुत से ऊहापोह के बाद, आपने अपने दिगम्बर मुनित्रेषका आदर के साथ त्याग किया और साथ ही, उदासीन भावसे, अपने शरीरको पवित्र भस्मसे आच्छादित करना आरंभ कर दिया। उस समयका दृश्य बड़ा ही करुणाजनक था । देहमे भम्मको मलते हुए आप की आँखें कुछ आई हो आई थी। जो आँखें भस्मक व्याधिकी तीव्र वेदनास भी कभी आई नहीं हुई थी उनका इस समय कुछ आर्द्र हो जाना साधारण बान न थी । संघके मुनिजनों का हृदय भी आपको देखकर भर आया था और वे सभी भावीकी अलंघ्य शक्ति तथा कर्मके दुर्विपाकका ही चितन कर रहे थे । समंतभद्र जब अपने देहपर भस्मका लेप कर चुके तो उनके बहिरंगमं भस्म और अंतरङ्गमे सम्यग्दर्शनादि निर्मल गुणों के दिव्य प्रकाशको देखकर ऐसा मालूम होता था कि एक महाकांतिमान रत्न कदमसे लिप्न होरहा है और वह कर्दम उस रत्नमें प्रविष्ट न हो सकनेसे उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता * . अथवा ऐसा जान पड़ता था कि समंतभद्रने अपनी भम्काग्निको भम्म करने — उसे शांत बनाने के लिये यह 'भम्म' का दिव्य प्रयोग किया है। अस्तु । * अन्तःस्फुरितसम्यक्त्वे बहिर्व्याप्त कुलिंगकः । शाभितोऽसौ महाकान्तिः कर्दमाता मरियथा ॥ -आराधना कथाकाश ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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