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आ० श्रीजिनविजयका भाषण
किरण ४ ]
सर्वत्र भारत और युरोप में व्यापक रूप से प्रसिद्ध हो गया । साधुवेष अपने गुरुको भेंट करनेके पश्चात भी मेरा वही नाम 'मुनि जिनविजय' प्रसिद्ध बना रहा। सो ठीक ही है- जिस प्रकार कोई कोट्याधिपति मनुष्य हो, उसका नाम सर्वत्र सुप्रसिद्ध हो, अगर उसका दिवाला भी निकल जाय तो भी नाम तो पहले का रहता है - नाम नहीं बदलना है । अन्तर इतना होजाता है कि वह राजा रंक होजाता है । इसी प्रकार मेरा भी मुनि-चरित्र पालने में दिवाला निरल गया है ।'
आपने कहा कि 'मैंने मुनि अवस्था में जैनके सभी सूत्रों का यथामति अध्ययन किया । अपने पूर्वाचार्यों की अनुपम अमूल्यनिधि नष्ट होते देख मेरे मनमें उसे प्रकाशित करनेकी इच्छा हुई, जिससे उन प्रन्थोंका उद्धार भी होजाय और उनकी रचित साहित्यसामग्री विद्वानोंके सामने अपना आदर्श रखे तथा उन पूर्वा चार्योंकी चिरस्मृति भी होजाय । हमारे पूर्वज श्री जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, श्री आत्मारामजी महाराज आदि किनने असाधारण विद्वान हो गये उसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। उनकी विद्वत्प्रतिभा का पता हमें उनकी रचित साहित्यसामग्री में ही हो सकता है। अतः हमारा साहित्य हमारे लिये अत्यन्त महत्वक संरक्षणीय एवं गौरवशाली वस्तु है । ' आपने आगे बतलाया कि 'अपने पूर्वजों की चिर स्मृतिको सादर कायम रखनेका अंकुर मेरे मन में उत्पन्न हुआ, तभी से मैं साहित्यक्षेत्र में अग्रसर हुआ । मैंने पाँच वर्ष तक पाटण में लगातार चातुर्मासकर वहांके ज्ञानभंडागका वैज्ञानिक रीति अन्वेषण एवं अत्रलोकन किया, तथा बड़े परिश्रममे उसकी सूची तैयार की।
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बड़ौदा नरेश श्रीसयाजीराव गायकवाड़ बड़े विद्यानुरागी महाराजा थे। उन्हें साहित्य प्रकाशनका अत्यन्त शौक था । श्रीत्रिवेणी महोदय ने उनसे महत्वपूर्ण साहित्य प्रकाशन के लिये विज्ञप्ति की । अतः वे ज्ञानभण्डारोंके अवलोकनार्थ पाटण पधारे। उसी समय मैं भी वहीं था और मेरी उनसे मुलाकात हुई। तत्पश्चात विद्यानुरागी महाराज जीने साहित्य प्रकाशन के लिये बड़ौदामे एक ग्रन्थमाला स्थापित की । उस कार्यके लिये मेरे परम मित्र श्रीचिमनलाल भाई वहाँ नियुक्त किये गये । उनकी प्रेरणास महाराजने मुझे अपने यहां भाषण देनेके निमित्त बुलवाया और मैंन वहाँ कई साहित्य-सम्बन्धी महत्व के भाषण दिये ।
इस समय हमारे ऊपर अंग्रेजी सरकार राज्य कर रही है। उसने भारतकी प्रायः सभी अमूल्य निधियों व जवाहरात, सोना, चांदी वगैरह को अपने देश में भिजवा दिया है। जो कुछ साहित्य धन बाकी रहा. आखिर उसे भी वहाँ भिजवानेका जब निश्चय किया तत्र कतिपय भारतीय विद्वानोंने उसका विरोध किया, मैं भी इसकी सूचना मिलने पर बम्बईस पूना श्राया और सबके प्रयत्नसं गवर्नमेण्टन यह अपूर्व मंग्रह वहीं रखने की आज्ञा देदी। डा० भँडारकार का इस मंग्रह में बहुत कुछ हाथ था, अतः उनके नामसे पूना में 'भंडारकार - प्राच्य विद्या मंदिर' की स्थापना हुई और उसमें ही साहित्यसामग्रीको रहने दिया गया। इस मंग्रहमे लगभग २२ हजार हस्त लिखित प्रन्थोंका संग्रह है । उसमें महत्व के ५-६ हजार जैन ग्रन्थ भी हैं। मैंन भाँडारकार इन्स्टिट्यूटको ५००००) रुपये की महायता दिलवाई। अब सरकार से भी उसे १२०००) रुपयेकी सहायता मिलती है । वहाँ प्रन्थोंको रखने की बड़ी सुव्यवस्था है। प्रत्येक विद्वान नियमानुसार