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अनेकान्त
Bond भरकर ५ प्रतिएँ एक साथ घर बैठे मँगा सकता है।
बीकानेर के ज्ञानभँडारोंको देखकर मुझे बड़ा हर्प और आचर्य हुआ कि आपके यहां इतना खजाना भग पड़ा है ! ऐसा खजाना राजस्थानमें और कहीं नहीं है। पर उन ज्ञानभँडारोंकी दुर्व्यवस्था देख मुझे बड़ा दुःख हुआ । न तो मन पूर्वाचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों का रखने के अच्छे मकान हैं न उनकी कोई सुव्यवस्था ही है। आप इतने धनी श्रीमानोंके रहते प्रन्थोंकी इतनी दुर्दशा क्यों है ? ये ग्रन्थ ही तो हमारे
हामी सामग्री हैं, और इन ग्रन्थोंके आधारपर ही आज हमारा जैनधर्म टिका हुआ है । अगर इनका ठीक प्रबन्ध न किया गया तो ये सब नष्ट होजाएँगे । बीकानेर में किसी को भी इन ग्रन्थोंके उद्धारकी चिन्ता नहीं है । मन्दिरों के बनाने और ग्वामिधर्म-वात्मल्य आदिमें तो हम लाखों रुपये खर्च कर देते हैं । पर इस ओर हमारा कुछ भी ध्यान नहीं है । हमें साहित्य के उद्धार के लिये उपेक्षा रखना उचित नहीं है। आप को उसके लिये अच्छा मकान बनाना चाहिए, जिसमें फौलादकी फायरप्रूफ अलमारियाँ हों, जिनमें प्रन्थ
जायँ ताकि वे नष्ट न होसकें ।
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एवं प्रगतिशील बनानेका आन्दोलन किया | महात्मा जीके कार्यका देख मेरे जीमें भी देशप्रेम जागृत हुआ और सोचा इस मुनिवेष में तो ऐसा होना असम्भव है । अतः मैंने यह साधुवेष अपने गुरुजी को सौंप बद्दरका चोला धारण किया। महात्माजीमं मेरी अहमदाबाद में मुलाकात हुई । मैंने भी इस आन्दोलन में महात्माजीको सहयोग दिया । अतः मुझे महात्माजीने गुजरात पुरातत्व मन्दिर में आचार्यक रूपमें नियुक्त किया ।
बीकानेर के जैनमाहित्यिक कार्यक्षेत्र में भाई श्रीश्रगरचन्दजी नाहटाने अवश्य ही प्रसंशनीय कार्य किया है । उन्होंने यहां अधिकतर साहित्यको अपने निजी खर्चम खरीदकर उसे बचाया है। वर्षों परिश्रम कर ग्रन्थोंकी सूचियें बनाई हैं। आखिर अकेला आदमी क्या कर सकता है ? इसमें संगठनकी श्रावश्यकता है। श्री नाहटाजीका कहना है कि उन्होंने छह महीने लगातार छह घंटे प्रतिदिनकी रफ्तार से कार्यकर वृहद् वतन्त्रीय ज्ञानभंडार की अकेले ही सूची तैयार की है। अतः मैं उनके उद्योगकी तारीफ करता हूं। हमारे समाज में इस तरहके अध्यवसायी युवक होने चाहिएँ, जिसमे हमारे नष्टप्राय होते हुए साहित्यका उद्धार हो सके ।
महात्मा गाँधीजीका आदर्श ऊँचा है, उन्होंने राष्ट्रीय विद्यापीठों द्वारा हमारी शिक्षा को शुद्ध, सात्विक
इसके बाद मुझे जर्मनी जाना पड़ा। मैं वहां करीब दो वर्ष तक रहा। वहांके सभी पुस्तकालयों में हस्तलिखित ग्रन्थों की सुव्यवस्था देख मुझे अत्यन्त खुशी हुई। जर्मनी में बड़े बड़े विद्वानों से मेरी मुलाकात हुई । जर्मनीको जैनसाहित्यसे अत्यन्त प्रेम है। भारतीय संस्कृतिके अत्यन्त प्रेमी हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति के लिये बहुत कार्य किया है। हमारे ऊपर राज्य करने वाली सरकारने इस देश के साहित्य के लिये उनके मुकाबले तिल मात्र भी कार्य नहीं किया है।
जर्मन वापिस आने के बाद मेरी फिर महात्मा जीसे मुलाकात हुई । लाहौर कांग्रेस के याद के सत्याग्रह में मैं भी शरीक हुआ और मुझे कृष्णमन्दिरकी हवा खानी पड़ी । जेलम मुक्ति के बाद विद्याप्रेमी बाबू बहादुर सिहजी सिंघीने शांतिनिकेतनमें सिंघी जैन ज्ञानपीठकी स्थापना की और मुझे अध्यापक नियुक्त किया। वहां जैन विद्यार्थी बहुत कम थे, अतः मैंन यह कार्य स्थगित करनेके लिये श्री मिघीजी नहा और सिंघी जैन ग्रन्थमालाकी स्थापनाके लिये प्रेरणा की। श्री सिंघीजीकी यह प्रन्थमाला अभी जांगेंसे चल रही है, जिसमें अनेकों महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थोंका प्रकाशन हो चुका है ।
हम अपने पूर्वजों की वस्तुके लिये बहुत लापर्वाह हो रहे हैं। सां ठीक नहीं। हमारे पूर्वजोंकी वस्तु हमारे लिये अत्यन्त आदरणीय है। जर्मनों को देखिये, उनको अपने पूर्वजोंकी वस्तु कितनी प्यारी है। इस का एक उदाहरण देता हूँ । बर्लिनके मुम्बद्वार पर एक सूर्य की मूर्ति है, उसके वाहन स्वरूप सात घोड़े हैं।