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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ दिगम्बर-सम्मत। -प्रकशकवने जो 'भाष्य' शब्दका प्रयोग किया २- पहप्रवचन एवं नस्वार्थाधिगम नस्वार्थसूत्रके ही है उसमे भी इम 'स्वोपज' कहलाने वाले भाष्यका बोध नामान्तर है, स्त्रोपज्ञ कहलाने वाले भाष्यके नहीं । हाँ, नहीं होता। कुछ श्वेताम्बर प्राचार्योंने स्वोपज्ञ भाष्यको भी अहव्यवचन यदि उक्त भाग्यको 'स्वोपज्ञ' न माना जावे तो यह तथा तस्वार्थाधिगम कहा है। सहजमें कल्पना की जा सकती है कि दोनोंके शब्द-साम्पका ३--यपि 'वृत्ति' शब्दका उल्लेख 'स्वोपज' कहे कारण शेताम्बर प्राचार्योंकी अनुकरण-प्रियता है। श्वेताम्बरों जाने वाले भाष्य के लिये भी अनेक स्थलों पर पाया है. में ग्वण्डमग्वण्डग्वाथ, कुसुमांजलि आदि ग्रंथोंकी रचना किन्तु अकर्मकोवकी शैली खंडन-मंडनमें स्पष्टताको स्थिर उनकी अनुकरण-प्रियताके प्रमाण हैं। प्रमाणनयनत्वालोका रग्बनं की है। यदि वे 'वृत्ति' शब्दम इस भाष्यको ग्रहण लंकारके सूत्रोंका परीक्षामुख' सूत्रमे मिलान करने पर भी करते तो न केवल इमका स्पष्ट रूपम उल्लेख करतं वरन अनुकरण-प्रियताका प्रमाण ही अधिक मिलता है। अस्तु, नस्वार्थसूत्रक श्वेताम्बरपाठकी पालोचना भी करने । अत: हमारी मम्मतिमें भाष्य कदापि 'म्बोपज' नहीं है, एवं वह यह माननको जी नहीं चाहता कि उनके सामने राजवानिक अकलंकदेवके बहुत बादमें अनुकरणप्रितनाक कारण लिखा लिग्वतं ममय 'बापज' कहलाने वाला भाष्य था, या नो गया है । वह गंधहस्तिमहामान्य जैमा कोई और भाष्य होगा अथवा *इम लग्नमें उल्लिग्विन बानी-घटनाग्रांकी परी ज़िम्मेदारी यह प्रयोग (?) मायनाके सम्बन्ध ही है। लेखकके ऊपर है। - मम्पादक प्राचीन साहित्यके महत्व और संरक्षण पर आचार्य श्री जिनविजयका भाषण (श्री हजारीमल बांठिया ) बीकानेर में गत ना०२८ अप्रेल मन १६४१ को प्राचार्य श्री जिनविजयजीने, 'प्राचीन माहित्यका महत्व और मंग्क्षगा' विषयपर जो जोरदार भाषण दिया है उसका मार श्री हजारीमल जी वाठियाने अनेकान्त' के पाठकोंके लिये भेजा है, उसे नीच दिया जाता है। इमसे कई बात प्रकाश में आती हैं और कितना ही शिक्षाप्रद पाट मिलता है। श्राशा है जनेकान्त के पाठक इसे गौरसे पढ़कर जैनमाहित्यके उद्धार एवं मंरक्षण के विषय में अपने कर्तव्यको ममझेगे और उमे शीघ्र ही स्थिर करके दृढताके माथ कार्य में परिणत करेंगे। दिगम्बर समाजको इम ओर और भी अधिकताके माथ ध्यान देनेकी जरूरत है, वह टम विषयमें श्वेताम्बर ममाजमे बहुत ही पीछे है। -मम्पादक भाषणकं प्रारम्भमें ही आपने अपने नामका शायद श्रीनागणों को कुछ आश्चर्य मा हांगा।' आगे स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि-'मुझे मब लोग मुनि जाकर आपने अपने नामका और स्पष्टीकरण करने श्रीजिनविजयजी कहते हैं, पर मैं अब इम नामका हुए कहा कि 'मैं तो आप सब लोगों जैमा एक मामान्य अधिकारी नहीं हैं। क्योंकि न तो मैं साधनों का स्थिति वाला भाई और मेवक हूं। अनः मैं अपने क्रिया कागड ही पालना हूं और न उनके वषको ही नामक लये श्राप मब लोगोंका अपराधी हूँ। माधुधारण किये हुए हूँ। फिर भी मेग यह नाम सुनकर अवस्थामें मैंने कई ग्रंथ बनाये थे, जिससे मेग नाम
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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