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________________ प्रभाचन्द्रका समय [ लेखक-न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन, काशी ] - प्राचार्य प्रभाचंद्र के समयके विषयमें डा० ८३७) की फार गुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण पाठक, प्रेमीजी + तथा मुख्तार साहब किया था। इस समय अमोघवर्षका राज्य था । जयआदिका प्रायः सर्वसम्मत मन यह रहा है कि प्राचार्य धवलाको समाप्ति के अनन्तर ही आचार्य जिनमनने प्रभाचंद्र ईसाकी ८ वीं शताब्दीके उत्तरार्ध एवं नवीं आदिपुगणकी रचना की थी। आदिपुगण जिनसन शताब्दीके पूर्वार्धवर्ती विद्वान थे। और इसका मुख्य की अन्तिम कृति है। वे इसे अपने जीवनमें पूर्ण आधार है जिनसनकृत आदिपुगणका यह श्लोक- नहीं कर सके थे। उसे इनके शिष्य गुणभद्र ने पूर्ण "चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे । किया था। तात्पर्य यह कि जिनसन प्राचार्यन ई० कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥" ८४० के लगभग आदिपुगणकी रचना प्रारम्भ की अर्थात्-जिनका यश चन्द्रमाकी किरणोंके होगी। इसमें प्रभाचंद्र तथा उनके न्यायकुमुदचंद्रका समान धवल है, उन प्रभाचन्द्रकविकी स्तुति करता उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिन निर्विवादरूपम हैं। जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगत्को प्रभाचंद्रका ममय ईसाकी ८ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध प्राहादित किया।" इस श्लाकमें चन्द्रोदयसे न्याय तथा नींका पर्वाध निश्चित किया है। कुमुदचन्द्रोदय (न्यायकुमुदचन्द्र ) प्रन्थका सूचन सुहृदर पं० कैलाशचंद्रजी श स्त्रीने न्य यकुमुदचंद्र समझा गया है। श्रा० जिनमननं अपनं गुरु वीरसेन प्रथमभागकी प्रस्तावना (पृ० १२३ ) में डॉ० पाठक की अधूरी जयधवला टीकाको शक सं० ७५९ (ई० आदिका निगस + करते हुए प्रभाचंद्र का समय ई० ___ + यह लेख न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागके लिये लिखी पं० कैलाशचन्द्रजीने श्रादिपुराणके 'चंद्राशुशुभ्रयगई प्रस्तावनाका एक अंश है। शसं' श्लोकमें चंद्रोदयकार किसी अन्य प्रभाचंद्रकविका श्रीमान् प्रेमीजीका विचार अब बदल गया है। वे उल्लेख बताया है, जो ठीक है। पर उन्होंने श्रादिपुराणकार अपने "श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र" लेख (अनेकान्तवर्ष ४ अंक जिनसेनके द्वारा न्यायकुमदचंद्रकार प्रभाचंद्रके स्मृत होनेमें १) में महापुराणटिप्पणकार प्रभाचन्द्र तथा प्रमेयकमलमा- बाधक जो अन्य तीन हेतु दिए हैं वे बलवत् नहीं मालूम तण्ड और गद्यकथाकोश श्रादिके कर्ता प्रभाचन्द्रका एक होते । अत: (१) श्रादिपुराणकार इसके लिये बाध्य नहीं ही व्यक्ति होना सूचित करते हैं। वे अपने एक पत्रमें मुझे माने जा सकते कि यदि वे प्रभाचंद्रका स्मरण करते हैं तो लिखते हैं कि-"हम ममझते हैं कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और उन्हें प्रभाचंद्रके द्वारा स्मृत अनंतवीर्य और विद्यानंदका न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र ही महापराणटिप्पणके कर्ता स्मरण करना ही चाहिये । विद्यानंद और अनंतवीर्यका है। और तत्त्वार्थवृत्तिपद (सर्वार्थसिद्धिके पदोंका प्रकटीकरण), समय ईमाकी नवीं शताब्दीका पूर्वाध है. और इमलिये वे समाधितन्त्रटीका, श्रात्मानुशासनतिलक, क्रियाकलापटीका, श्रादिपराणकारके ममकालीन होते हैं। यदि प्रभाचंद्र भी प्रवचनमारसरोजभास्कर (प्रवचनसारकी टीका) श्रादिके कर्ता, ईमाकी नवीं शताब्दीके विद्वान् होते, तो भी वे अपने ममऔर शायद रत्नकरण्डटीकाके कर्ता भी वही हैं।" कालीन विद्यानंद आदि प्राचार्योका स्मरण करके भी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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