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________________ भनेकान्त [१४ न्यासका निर्देश किया है तब 'टीकामाल' शब्दस स्थान नहीं रहता । इसलिए प्रभाचंद्रका समय ई०९८० सूचित होनेवाली टीकाकी मालामें तो प्रभाचंद्रकृत से १०६५ तक मानने में कोई बाधा नहीं है । शब्दाम्भोजभास्करको पिरोया ही जा सकता है । इस १प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथम संस्करणके सम्पादक तरह प्रभाचंद्रके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखोंक पं० वंशीधरजी शास्त्री शोलापुरने उक्त संस्करणके उपोद्घात भाधारसे हम प्रभाचंद्रका समय सन् ९८० से १०६५ में 'श्रीभोजदेवराज्ये ' प्रशस्ति के अनुसार प्रभाचंद्रका समय तक निश्चित कर मकते हैं। इन्हीं उल्लेखोंक प्रकाशमे ईसाकी ग्यारहवी शताब्दी सूचित किया है । और आपने जब हम प्रमेयकमलमार्तण्डके 'श्रीभोजदेवराज्य' इसके समर्थनके लिए 'नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाश्रो का प्रमेयकमलमार्गण्डमे उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित आदि प्रशस्तिलेख तथान्यायकुमुदचंद्रकं 'श्रीजयसिंह किया है। पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नही है; प्रमेयदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलग्वका देग्वते हैं तो वे कमलमार्तण्ड में ' विग्गहगइमावण्णा' और 'लोयायासपएअत्यन्त प्रामा णक मालूम होते हैं। उन्हे किसी टीका से' गाथाएँ उद्धृत हैं । पर ये गाथाएँ नेमिचंद्रकृत नही हैं । टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतून कह- पहिली गाथा धवलाटीका (रचनाकाल ई०८१६) मे उद्धृत कर नहीं टाला जा सकता। है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रजति में भी पाई जाती है। उपर्युक्त विवेचनस प्रभाचंद्रके समयकी पूर्वावधि दूसरी गाथा पूज्यपाद (ई० ६ वी) कृत सर्वार्थसिद्धिम और उत्तगवधि करीब करीब भोजदेव और जयसिंह- उद्धृत है। अत: इन प्राचीन गाथानोको नेमिचन्द्रकृत नही माना जा सकता। अवश्य ही इन्हे नेमिचंद्रने जीवदेवके समय तक ही पाती है। अनः प्रमेयक मल काण्ड और द्रव्यसंग्रहमें संगृहीत किया है । अतः इन मार्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्रमे पाए जानेवाले प्रशम्ति गाथाश्रोका उद्धृत होना ही पूभाचंद्रके समयको ११ वी लेखोंकी प्रामाणिकता और प्रभाचंद्रकर्तृतामें सन्दहको सदी नही साध सकता । 00000000000000*********** *** ग्राहकोंको सूचना आवश्यकता अनेकान्तके ग्राहकोंकी सूची छपाई जा रही है। श्री पारमानन्दजी जैन गुरुकुल पंजाब, गुजरांवाला अतः जिन प्राहकोंको अपने पते पादिमें किसी प्रकार के लिए एक विशेष अनुभवी हिन्दी संस्कृतके अच्छे * का सांशोधन अथवा परिवर्तनादि कराना प्रभीष्ट हो वे जानकार गुरुकुलशिक्षणपद्धतिमें विश्वास रखने वाले शीघ्र ही इसकी सूचना अनेकान्त-कार्यालयको देनेकी जैन प्रिंसिपल ( विद्याधिकारी) की आवश्यकता है कृपा करें। प्रार्थी महानुभाव प्रमाणपत्र एवं प्रशंसापत्र तथा न्यूनातिन्यून प्राय मासिक वेतनके साथ अधिष्ठाताके -व्यवस्थापक 'अनेकान्त' * नामपर शीघ्र ही प्रार्थना पत्र भेजें। 00000000000000000000000000000
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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