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भनेकान्त
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न्यासका निर्देश किया है तब 'टीकामाल' शब्दस स्थान नहीं रहता । इसलिए प्रभाचंद्रका समय ई०९८० सूचित होनेवाली टीकाकी मालामें तो प्रभाचंद्रकृत से १०६५ तक मानने में कोई बाधा नहीं है । शब्दाम्भोजभास्करको पिरोया ही जा सकता है । इस
१प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथम संस्करणके सम्पादक तरह प्रभाचंद्रके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखोंक पं० वंशीधरजी शास्त्री शोलापुरने उक्त संस्करणके उपोद्घात भाधारसे हम प्रभाचंद्रका समय सन् ९८० से १०६५ में 'श्रीभोजदेवराज्ये ' प्रशस्ति के अनुसार प्रभाचंद्रका समय तक निश्चित कर मकते हैं। इन्हीं उल्लेखोंक प्रकाशमे ईसाकी ग्यारहवी शताब्दी सूचित किया है । और आपने जब हम प्रमेयकमलमार्तण्डके 'श्रीभोजदेवराज्य' इसके समर्थनके लिए 'नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाश्रो
का प्रमेयकमलमार्गण्डमे उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित आदि प्रशस्तिलेख तथान्यायकुमुदचंद्रकं 'श्रीजयसिंह
किया है। पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नही है; प्रमेयदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलग्वका देग्वते हैं तो वे कमलमार्तण्ड में ' विग्गहगइमावण्णा' और 'लोयायासपएअत्यन्त प्रामा णक मालूम होते हैं। उन्हे किसी टीका से' गाथाएँ उद्धृत हैं । पर ये गाथाएँ नेमिचंद्रकृत नही हैं । टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतून कह- पहिली गाथा धवलाटीका (रचनाकाल ई०८१६) मे उद्धृत कर नहीं टाला जा सकता।
है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रजति में भी पाई जाती है। उपर्युक्त विवेचनस प्रभाचंद्रके समयकी पूर्वावधि दूसरी गाथा पूज्यपाद (ई० ६ वी) कृत सर्वार्थसिद्धिम और उत्तगवधि करीब करीब भोजदेव और जयसिंह- उद्धृत है। अत: इन प्राचीन गाथानोको नेमिचन्द्रकृत
नही माना जा सकता। अवश्य ही इन्हे नेमिचंद्रने जीवदेवके समय तक ही पाती है। अनः प्रमेयक मल
काण्ड और द्रव्यसंग्रहमें संगृहीत किया है । अतः इन मार्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्रमे पाए जानेवाले प्रशम्ति गाथाश्रोका उद्धृत होना ही पूभाचंद्रके समयको ११ वी लेखोंकी प्रामाणिकता और प्रभाचंद्रकर्तृतामें सन्दहको सदी नही साध सकता ।
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