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किरण २]
प्रभाचंद्रका समय
का व्याख्यान करते हुए 'टीकाकार' के नामसे न्यायकु०- ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे च मोक्षवचारे चन्द्र में की गई उक्त कारिकाकी व्याख्या उद्धत की है। विस्तरतः प्रत्याख्याताः।" इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि ईसाकी १२ वीं शताब्दीकं विद्वान देवभद्रने न्यायाव- प्रमेयकमलमार्शण्ड और न्यायकुमुदचंद्रप्रन्थ इन तारटीका-टिप्पण (पृ० २५, ७६) में प्रभाचन्द्र और टीकाओं पहिले रचे गए हैं । अतः प्रभाचंद्र ई० की उनके न्यायकुमुदचंद्रका नामोल्लेख किया है। अतः १२ वीं शताब्दीक बादके विद्वान नहीं हैं। इन १२ वीं शताब्दी तकके विद्वानोंके उल्लेखोंके (३)-वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० ११४३
आधारसं यह प्रामाणिकरूपसे कहा जा सकता है तथा स्वर्गवाम वि० सं० १२२६ में हुआ था। ये वि० कि प्रभाचन्द्र ई० १२ वी शताब्दीके बादक विद्वान् ११७४ में आचार्यपद पर बैठे। संभव है इन्होंने वि० नहीं है।
सं० ११७५ ( ई० १११८ ) के लगभग अपने प्रसिद्ध (6) रत्नकरण्डश्रावकाचार और समाधिनन्त्रपर
प्रन्थ म्याद्वादरत्नाकरकी रचना की होगी। स्याद्वाद्प्रभाचंद्रकृत टीकाएँ उपलब्ध हैं । पं० जुगलकिशोरजी
रत्नाकरमें प्रभाचंद्रक प्रमेयकमलमार्चण्ड और न्यायमुख्ताग्ने' इन दोनों टीकाओंका एक ही प्रभाचंद्र के
कुमुदचंद्र का न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया द्वाग रची हुई मिद्ध किया है। आपके मतसे ये
है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरणमें तथा प्रतिबिम्ब प्रभाचंद्र प्रमंयकमलमार्तण्ड आदिकं रचयिताम
चर्चामें प्रभाचंद्र और प्रभाचंदके प्रमेयकमलमार्तण्ड भिन्न है । रत्नकरण्डटीकाका उल्लेख पं० श्राशाधरजी
का नामोल्लेग्व करके खंडन भी किया गया है । अतः द्वारा अनागारधर्मामृत-टीका (अ० ८ श्लो० ९३) में।
प्रभाचंद्र के समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० ११०० किए जाने के कारण इस टीकाका रचनाकाल वि०
सुनिश्चित होजाती है। सं० १३०० मे पहिलेका अनुमान किया है, क्योंकि अ०
(४) जैनेन्द्रव्याकरणकं अभयनन्दिसम्मत सूत्रधष्टी० वि०सं० १३००में बनकर ममाप्त हुई थी अन्ततः
पाठपर श्रुतकीनिन 'पंचवस्तु प्रक्रिया बनाई है । अतः मुख्तार सा० इस टीकाका रचनाकाल विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका मध्यभाग मानते हैं। अस्तु, फिनहाल
कीर्ति कनड़ी चंद्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके मुख्तार सा० के निर्णयके अनुसार इसका रचनाकाल
गुरु थे। अग्गलकविने शक २०११ ई० १०८९ में
चन्द्रप्रभचरित्र पूर्ण किया था। अतः श्रुतकीर्तिका वि० १२५० ( ई० ११९३ ) मान कर प्रस्तुत विचार
ममय भी लगभग ई० १०७५ होना चाहिए । इन्होंने करते हैं।
रत्नकरण्डश्रावकाचार (पृ०६) में केवलिकव- अपनी प्रक्रिया में एक 'न्यास' प्रन्थका उल्लेख किया है। लाहारका न्यायकुमुदगतशब्दावलीका अनुसरण संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर करके खंडन करते हुए लिग्वा है कि-"तदलमतिप्रमङ्गेन नामका ही न्यास हो। यदि ऐसा है तो प्रभाचंद्रकी प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे प्रपन्चतः प्ररू- उत्तगवधि ई० १०७५ मानी जा सकती है। पणात्"। इसी तरह समाटी०(पृ० १५)में लिखा है- शिमोगा जिलेके शिलालेख नं० ४६ से ज्ञात "यैः पुनर्योगसांख्यैः मुक्तौ तत्प्रच्युतिगत्मनाऽभ्युपगता होता है कि पूज्यपादने भी जैनन्द्र-न्यासकी रचना
१ देखो, रत्नकरण्डश्रावकाचार भूमिका पृ० ६६ से। की थी । यदि श्रुतकीर्तिन न्याम पदस पूज्यपादकृत