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कवि राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल
[ सम्पादकीय ]
न समाज में कवि राजमल्ल नामक एक बहुत बड़े विद्वान् एवं प्रन्थकार वि०की १७ वीं शताब्दी में उस समय हो गये हैं जब कि अकबर बादशाह भाग्न का शासन करता था । आपने कितने ही ग्रन्थों का निर्माण किया है, परन्तु उनकी संख्या आदिका किमीको ठीक पता नहीं है। अभीतक आपकी मौलिक रचनाओंके रूपमें चार ग्रंथोंका ही पता चला था और वे चारों ही प्रकाशित हो चुके हैं, जिनके नाम हैं - १ जम्बूस्वामिचरित्र, २ लाटीसंहिता. ३ अध्यात्मकमलमार्तण्ड, और ४ पंचाध्यायी । इनमें से पिछला (पंचाध्यायी) प्रन्थ जिसे प्रथकार अपनी ग्रंथप्रतिज्ञा
'ग्रंथराज लिखते हैं, अधूरा है— पूरा डेढ़ अध्याय भी शायद नहीं है - और वह आपके जीवन की अन्तिम कृति जान पड़ती है. जिसे कविवर के हाथोंसे पूरा होने का शायद सौभाग्य ही प्राप्त नहीं सका। काश, यह ग्रंथ कहीं पूरा उपलब्ध हो गया होता तो सिद्धांत विषय को समझने के लिये अधिकांश ग्रंथोंके देवकी जरूरत ही न रहती - यह अकेला ही पचासों ग्रंथोंकी जरूरतको पूरा कर देता । अस्तु; हाल में मुझे आपका एक और ग्रंथ उपलब्ध हुआ है, जिसका
* इनमेंसे प्रथम तीन ग्रन्थ 'माणिकचंद जैन ग्रन्थमाला'
बम्बई में मूल रूपसे प्रकाशित हुए हैं और चौथा ग्रन्थ अनेक स्थानोंसे मूल रूपमें तथा भाषा टीकाके साथ पूकाशित हो चुका है। लाटी संहिता की भी भाषा टीका पूकट हो चुकी है।
नाम है 'पिंगल' और जिसे ग्रंथके अंतिम पद्य में 'छंदोविद्या' भी लिखा है । यह ग्रंथ दिल्ली के पंचायती मंदिर के शास्त्र भण्डारसे उपलब्ध हुआ है, जिसकी ग्रंथसूची पहले बहुत कुछ अस्त-व्यस्त दशा में थी और अब वह अपेक्षाकृत अच्छी बन गई है। कविवरके उक्त चार ग्रंथों में से प्रथमके दो ग्रंथों ( जम्बूस्वामिचरित्र और लाटीसंहिता ) का पता सबसे पहले मुझे दिल्ली के भंडारोंसे ही चला था और मेरी तद्विपयक सूचनाओं पर से ही उनका उद्धार कार्य हुआ है, इस पांचवें ग्रंथका पता भी मुझे दिल्ली के ही एक भण्डारसे लग रहा है - दिल्लीको इस ग्रंथकी रक्षाका भी श्रेय प्राप्त है, यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होती है।
कुछ अर्सा हुआ, जब शायद पंचायती मंदिरकी नई सूची बन रही थी, तब मुझे इस ग्रंथको सरसरी तौर पर देखनेका अवसर मिला था और मैंने इसके कुछ साधारण से नोट भी लेलिये थे । हाल में वे नोट मेरे सामने आए और मुझे इस ग्रंथको फिरसे देखने की जरूरत पैदा हुई । तदनुसार गत फर्वरी मासके अंतिम सप्ताह में देहली जाकर मैं इसे ले आया हूँ और इस समय यह मेरे सामने उपस्थित है। इसकी पत्र संख्या मिली हुई पुस्तक के रूपमें २८ है, पहले पत्रका प्रथम पृष्ठ वाली है, २८ वें पत्रके अंतिम पृष्ठपर तीन पंक्तियाँ है— उसके शेष भागपर किसीने बादको छंदविषयक कुछ नोट कर रक्खा है और