________________
किरण १]
प्रो० जगदीशचन्द्र के उत्तर लेखपर सयक्तिक मम्मति
28
-
विधानस और 'कालश्च' इम दिगम्बरीय सूत्रके उल्लेख किया है वे शिलालेखक और हस्तिमल सरीखे विद्वान् से, प्रोफेसर साहबका जो मत है कि भाष्य राजवार्ति- हैं। उल्लेखका १५वीं शताब्दीसे पूर्व न मिलकर १५वीं कारके समक्ष था उसका निरसन (खंडन) भले प्रकार शताब्दीमें मिलना किसीकी विशेषविज्ञतामें आश्चर्यकिया है।
सूचक तो नहीं है। आप सरीखे यदि विद्वान आश्चर्य प्रोफेमरजीने जो यह लिखा है कि भाष्यका मानें तो दूसरी बात है। नाम 'वृत्ति' भी था सो उसका निषेध तो पं० जुगल- प्रो० साहबने जो यह लिखा है कि-'कालच' किशोर जीने भी नहीं किया है, अतः उस विषयके इम सूत्रके होनेपर तो पांच द्रव्यकी शंको हो ही उल्लोवकी विशेष आवश्यकता नहीं थी। परंतु आपने नहीं सकती किंतु 'कालश्चेत्येके' ऐसा सूत्र होनेपर पं० जुगलकिशोरजी द्वारा उपस्थित किये हुए शिला- शंका हो सकती है सो यह लिखना भी आपका लेख प्रमाणकी 'वृत्ति' को जो अनुपलब्ध बतलाकर असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि जिस जगहकी अपनं मतकी पुष्टि करनी चाही है वह कुछ समीचीन व्याख्या करते समय पंचत्वकी शंका की गई है वहाँ प्रतीत नहीं होती; क्योंकि उसमें १३२० शकके तक सौत्रीय पद्धतिमें कालका कोई भी उल्लेख नहीं शिलालेखको नवीन बतलाकर जो अपना मन समर्थन आया है । इसलिये पंचत्वविषयक शंका करना तथा किया है वह निर्मलक है। शिलालेम्यक लेखक तो 'कालश्च' इस सूत्र द्वारा शंकाका समाधान बिलकुल जिम शताब्दीमें उत्पन्न होंगे उसी शताब्दीका उल्लेख जायज है । जैसे 'इमो नित्यावस्थितान्यरूपाणि' करेंगे; जिनने पुगनी बातका उल्लेख किया है उनका सूत्रकी दूसरी वार्तिकके प्रमाणमें 'तदभावाव्ययं कथन अयुक्त क्यों ? क्या परम्पगसे पूर्वकी बातको नित्यं' सूत्रको उपन्यम्त किया है । इसी तरह और भी जानने वाले और अपने समयमें उस पूर्वकी बातका बहुतसे म्थल हैं जो कि पूर्वकथित सिद्धिमें आगेके उल्लेख करने वाले झूठे ही होते हैं ? यदि प्रो० साहब सूत्र उपन्यस्त हैं, जिमको कि आपने भी 'तदभावेति' का ऐसा सिद्धान्त है तो फिर कहना होगा कि आप और 'भेदादणुः' सूत्रोंके उल्लेग्वसे स्वीकार किया है। इतिहासज्ञता से कोसों दूर हैं। क्या १३२० शताब्दी यदि गजवार्तिककारको भाष्यपर की गई शंकाका के लेखकको उस लेग्वनसे कोई स्वार्थिक वामना थी ? ही निरसन करना अभीष्ट था तो भाष्यगत सूत्रके इसी नाचीज युक्तिको लेकर आपने गंधहम्ति भाष्यके उल्लेखसे ही उसका निरसन करते । और जब उम अग्तित्वको मिटानेकी जो कोशिश की है वह भी विषयमें मूत्रगत-एक' शब्दको लेकर शंका उठनी निर्मल और नितान्त भ्रामक है, जबकि अष्टसहस्रीके तो फिर उसका समाधान करते कि नहीं ? -भाष्यटिप्पण और हस्तिमल्ल आदि कवियोंके उल्लेखसे उस कारके मतसे काल द्रव्य भी है, जो कि 'वर्तना परिका भी अस्तित्य होना स्पष्ट ही है। बहुतसे प्राचार्य णाम' इत्यादि सूत्रसे स्पष्ट है । सो यह कुछ राजऐसे होते हैं कि अपने पूर्वकी कृतिका उल्लेख करते हैं वार्तिकारने किया नहीं, इससे स्पष्ट है कि राजवार्ति
और बहुनमे ऐसे हैं जो नहीं भी करते हैं-उन्हींमेंसे कारका अभिप्रेत भाष्यविषयक समाधानका नहीं है। निरपेक्ष पूज्यपाद आदि प्राचार्य हैं। जिनने उल्लेख यह एक बड़ी विचित्र बात है कि भाष्यगत शंकाका