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अनेकान्त
[वर्ष ४
नहीं है, अतः यह दलील यहाँ ठहर नहीं सकती। निषेध नही किया है तो कहीं उसकी स्वोपज्ञताका दूसरी दलील यह है कि सूत्र और भाष्यको एकत्व विधान भी तो नहीं किया है। वास्तवमें दिगम्बर दिग्वानेके लिये सप्तमीका एक वचन है सो यह भी अकलंक आदिके सामने वह ग्रंथ तथा उसकी ऐसी ठीक नहीं; क्योंकि एकना जो दिखलाई जा सकती है मान्यता होती तो वे उस विषयक निषेध तथा विधान वह एक कतृत्वकी दिग्वलाई जा सकती है । सो ऐसी के विषयमें कुछ लिखते; परंतु वह प्रन्थ जब उनके संदिग्ध अवस्थामें वह बात बन नहीं सकती; क्योंकि सामने ही नहीं था तो फिर प्रोफेसर साहबका यह द्वंद्व-समासमें सर्वपद स्वतंत्र रहते हैं, पूर्वपदके साथ लिखना कहां तक संगत है कि इस ग्रंथकी स्वोपज्ञता जो विशेषण है वह उत्तरपदके साथ हो ही हो, का निषेध पं० जुगलकिशोर जीको छोड़कर किसी यह नियम नहीं है। दूसरे टीकाकर्त्ताको यदि भाष्य दिगम्बरी विद्वानने नहीं किया ? पहले आप यह 'म्वोपज्ञ' ही बतलाना था तो स्पष्ट भाष्यकं साथ भी मिद्ध कीजिये कि-अमुक पूज्यपाद, अकलंक आदिक 'म्वोपज्ञ' या 'उमास्वातिवाचकोपज्ञ' ऐसा काई सामने यह ग्रंथ था । जब यह बात सिद्ध होजायगी विशेषण लगा देना था, सो कुछ किया नहीं। अतः तब पीछे आपकी यह बात भी मान्य की जा सकेगी। इस सप्तमाध्यायकं अंतसूचक वाक्यसे तो यह सूचित आपने इस 'लेखांक ३' में जो प्रमाण दिये हैं वे कोई होता नहीं कि श्वेताम्बरीयभाष्य 'स्वोपज्ञ' है। तथा भी ऐसे प्रमाण नहीं हैं जिनसे यह बात मिद्ध होजाय इस लेखांक ३ में आपने ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं कि श्वेताम्बरभाष्य अकलकदेवके मामने था । दिया है कि अमुक अमुक प्रमाणसं, इन-इन प्राचार्योकं आपने अपने मतकी पुष्टिमें जिन नवीन विद्वानोंका मतस, इस (श्वेताम्बरीय) भाष्यकी स्वोपज्ञता सिद्ध है। दाखिला दिया है उन मर्वमें श्राप सरीग्वा ही बहुत
दूसरे एक बड़े ही आश्चर्यकी बात है कि, मिद्ध- कुछ सादृश्य है, अतः उनकी मान्यता इस विषयक सेनगणि जिन उमास्वातिको 'सूत्रानभिज्ञ' कहते हैं प्रमाणकोटिकी मानी जाय, ऐसी बात नहीं है। यहाँ
और उनके कथनको 'प्रमत्तगीत' बतलाते हैं फिर पर युक्तिवादका विषय है, युक्तिसे आपके कथनकी उस भाष्यको स्वोपज्ञ तथा प्रमाण मानकर उसपर प्रमाणीकता सिद्ध हो जायगी तो फिर उनकी भी वैमी टीका लिखते हैं ! मुझे ता ऐसा प्रतीत होता है कि- मान्यता स्वयं सिद्ध ही है। फिर सहयोगके लिये एक इम प्रन्थकी स्वोपज्ञताक विषयमें सिद्धसेन, हरिभद्र की जगह दो तीनकी मान्यता अवश्य ही पौष्टिकता
आदि विद्वानोंने धोखा खाया है। कारण कि, भाष्यके की सूचक हो सकती है। कोने उस प्रन्थकी महत्ता दिखलानेके लिये कहीं
(३) वृत्ति स्वोपज्ञतासूचक संकेत किया दीखता है, इसीसे तथा 'वृत्तौ पंचत्ववचनात्' इत्यादि राजवार्तिकके विषय कुछ श्वेताम्बरीय कथन की सम्मततासे ज्यादा को लेकर पं० जुगलकिशोरजीने जो विषय प्रतिपादन विचार न करके पीछेके विद्वानोंने उस प्रन्थको किया है वह भी बिलकुल संगत है। संगतिका कारण स्वोपक्ष मान लिया दीखता है। प्रो० साहबके कथन यह है कि पं० जुगलकिशोर जीने, राजवार्तिक और से दिगम्बरी विद्वानोंने उस ग्रंथकी स्वोपज्ञता का श्वेताम्बरीय भाष्यके पाठमें पाये जाने वाले भेदके