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________________ अनेकान्त .. [वर्ष ४ समाधान, अकलंक सरीखे विद्वान् भाष्यगत सूत्रस षटत्वका कथन है। इसी दशामें पंचद्रव्यकी शंच न करकं दिगम्बरगत सूत्रसं करें ! क्या शंका करने होना और उसका समाधान हाना बिलकुल ही उपवाला यह नहीं कह सकता था कि-'कालश्च' यह युक्त है । यहाँपर 'वृत्तौ पंचत्ववचनात' इत्यादि सूत्र भाष्यमें कहाँ है ?-यह सूत्र तो दिगम्बराम्नाय वार्तिकका अभिप्राय यह होता है कि-'वृत्तौ'का है। ऐसी बात उपस्थित होनेपर अकलंकजी क्या रचनायां (सूत्र रचनायां) सूत्र रचनामें 'पंच'-पांच समाधान करते, सो प्रा० साहब ही जानें! · द्रव्य हैं, 'तु'-पुनः या अर्थात, 'प्रवचनात्'___ वास्तवमें इस विषयको हल करनेके लिये पं० छहका कथन न हानेसे, 'षद्रव्यापदेशव्याघातः'जुगलकिशोरजीने जिस वृत्तिका शिलालेखगत उल्लेख षद्रव्यका उपदेश नहीं बन सकता । ऐसा शंकाका किया है वह ही वृत्ति इस प्रकरणकी होनी चाहिये समाधान 'इतिचेम्न' शब्दसे किया है, सो स्पष्ट ही है। या कोई दूसरी + ही हो; परंतु वह होगी अवश्य इस वार्तिकका जो भाष्य है उसका अभिप्राय भी यही दिगम्बर वृत्ति ही, क्योंकि 'कालश्च' सूत्रका दाखिला होता है-वृत्ति-सूत्ररचनाम धर्मादिक द्रव्य अवस्थित ही स्वयमेव इस बातका सूचक है। वे कभी पंचत्वसं व्यभिचरित नहीं हो सकते, इस___ मेरी समझसे इस प्रकरणमें एक दूमरी बात लिये पटव्यका उपदेश नहीं बनता । उसका उत्तरप्रतीत होती है, जो कि विद्वत दृष्टि में बड़े ही महत्वकी अकलंक देवने–'कालश्च' सूत्रस देकर अपने कथनकी वस्तु हो सकती है। वह बात यह कि-'वृत्ति' शब्दकं पति की है। बहुतसे अर्थ हैं, उनमेंसे एक अर्थ वृत्तिका 'रचनाभेद' खंडन मंडन शास्त्रों में 'नहि कदाचित' आदिशब्द यानी रचनाविशेष होता है। यहां रचनाविशेषका प्रायःाही जाते हैं, इसलिये ये शब्द भाष्यमे हैं और आशय सूत्ररचनाविशेष होता है, क्योंकि प्रकरण ये ही शब्द राजवातिकमे भी हैं। इसलिये राज यहां उसी विषयका है। जैसे कि 'श्रा आकाशादेक- वार्तिकके सामने भाष्य था, ऐसा मान लेना विद्वत् द्रव्याणि' इस सूत्रमें मौत्रीरचनाका कथन है। दृष्ट्रिय हृदयप्राहकताका सूचक नहीं है। ___ यहांपर भी सौत्री रचनामें 'जीवाश्च' सूत्र तक (४) भाष्य या आगे भी बहुत दूर तक 'काल' द्रव्यका सूत्रालेग्वसे पं० जुगलकिशोरजीने 'कालस्योपसंख्यान' इत्यादि वर्णन नहीं आया है, और 'जीवाश्च' इस सूत्रके बाद बाकि राजवार्तिक भाष्य में आये हुए 'बहुकृत्वः' ही 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्रगत 'अवस्थित' शब्दको लेकर जो यह सूचित किया है कि-अकलंकशब्दकी व्याख्या की गई है, और व्याख्यामें धमोदि- देवके समक्ष कोई प्राचीन दि० जैन भाष्य था या +'वृत्ति विवरणको भी कहते हैं, इसलिये राजधार्तिक उन्हींका भाष्य जो राजवार्तिकमें है, वह भी हो में 'आकाशप्रहणमादौ' इत्यादि वार्तिकके विवरण- सकता है। पंडितजीकी ये दोनों कोटियां उपयुक्त है। प्रकरणमें 'धर्मादीनां पंचानामपि द्रव्याणां' ऐसा । उल्लेख है और इसलिये कहा जा सकता है कि क्योकि ! क्योंकि राजवार्तिककारके सामने उनसे प्राचीन 'वृत्ति' शब्दसे ननने अपने राजवार्तिकका ग्रहण भाष्य 'सर्वाथसिद्धि' था, जिसके कि आधारपर किया हो।-पंचमाध्याय प्रथमसूत्र वार्तिक नं० ३४। राजवार्तिक और उसका भाष्य है। सर्वार्थसिद्धि
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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