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________________ किरण १] प्रो० जगदीशचंद्र के उतरलेखपर सयुक्तिक सम्मति भाष्य क्यों है ? इसका उत्तर—स्वमत स्थापन और परमतनिराकरणरूप भाष्यका अर्थ होता है तथा वृत्ति और भाष्य एक अर्थवाचक भी होते हैं, दुसरं सर्वार्थसिद्धिकी लेखनशैली पातंजल भाष्यसरीखी भी है । इन सभी कारणांस सर्वार्थसिद्धि भाष्य ही है। इसलिये पं० जुगलकिशोरकी मान्यता, अन्य भाष्योंको इस वक्त अनुपलब्धिमे, शायद थोड़ो देरके लिये नहीं भी मानी जाय, परंतु सर्वार्थसिद्धिकी तो वर्तमान में उपलब्धि है और उसमें 'षड्द्रव्याणि' के उल्लेग्ब २–३ जगह दीख ही रहे हैं। इसी तरह राजवार्तिक में भी कई जगह उल्लेख हैं। अतः इस विषय में पंडितजीकी प्राचीन भाष्यसंबंधी तथा गजवार्तिक-संबंधी जो मान्यता है वह बिलकुल सत्य और अनुभवगम्य है। इस प्रकरण में पं० जुगलकिशोरजीने प्रोफेसर साहब जीके लिये जो यह लिखा है कि भाष्य में 'बहुकृत्वः' शब्द है उसका अर्थ 'बहुत बार' होता है उस शब्दार्थ को लेकर 'षड़द्रव्याणि, ऐसा पाठ भाष्य में बहुत बार को छोड़कर एक बार तो बतलाना चाहिये, इस उपर्युक्त पंडितजी के कथन के प्रतिवादके लिये प्रोफेसर साहब ने कोशिश तां बहुत की है परंतु 'षड्द्रव्याणि' इस प्रकार के शब्दोंके पाठको वे नहीं बता सके हैं। यह उनके इस विषयके अधीर प्रवृत्तिकं लम्बे-चौड़े लेखसे स्पष्ट है। यद्यपि इस विषय में उनने 'सर्वे षट्त्वं षड् द्रव्यावरोधात्' इस पं० जुगलकिशोरजी प्रदर्शित भाष्य वाक्यसे तथा प्रशमरनिकी गाथाकी 'जीवाजीवौ द्रव्यमिति षविधं भवतीति' छाया से बहुत कोशिश की है परंतु केवल उससे 'षट्त्वं' 'षड्विधं', ये वाक्य ही सिद्ध हो सके हैं किन्तु 'षड्द्रव्याणि' यह वाक्य उमास्वातिने तथा भाष्यकारने कहीं भी स्पष्ट ६१ रूपसे उल्लिखित नहीं किया है। उत्तर वह देना चाहिये जो प्रश्नकर्ता पूछता हो, परन्तु आपके इतने लम्बेचौड़े व्याख्यानमें वैसा उत्तर नहीं है । अतः स्पष्ट है कि गजवार्तिक में 'यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्द्रव्याणि इत्युक्त' इन शब्दों से जिस भाष्यका उल्लेख है वह सर्वार्थसिद्धि या उससे भी पुराने किसी भाष्यका और राजवार्तिकभाष्यका उल्लेख है - श्वेताम्बर भाष्यका उल्लेख किसी भी दशा में न है और न हो सकता है। क्योंकि उपलब्ध दिगम्बर भाष्यों में वैसे उल्लेख स्पष्ट हैं, तो फिर दूसरे भाष्यकी कल्पना केवल कल्पना ही है अर्थात बिलकुल ही निर्मूलक है । इसी प्रकरण में प्रोफेसर साहबने जो लिखा है कि 'पंचत्व' शब्दका अकलंकने जो ऊपर पंचास्तिकाय अर्थ किया है वही ठीक बैठता है। मेरी समझ में यह श्रापका लिखना बिल्कुल ही असंगत है। क्योंकि अकलंकदेवने अपनी गजवार्तिकमें कहीं भी 'पंचत्व' का अर्थ पंचास्तिकाय नहीं किया है। दूसरे तो क्या 'अवस्थितानि' पदका अर्थ भी उनने 'पंचत्व' नहीं किया है किंतु 'षड्यन्ता' किया है। आप शायद पंचमाध्यायके पहले सूत्रकी १३वीं और १५वीं वार्तिक के भाष्यका उद्देखकर यह कहें कि वहाँपर 'पंचत्व' अर्थ 'पंचास्तिकाय' ही किया है सां यह आपकी संस्कृत भाषाकी जानकारीका ही परिणाम है; क्योंकि वहाँ प्रथम तो 'पंचत्व' शब्द ही नहीं है, दूसरे है भी तो 'पंच' शब्द है और वह पंच शब्द अस्तिकायके पूर्व जुड़ा होने से अस्तिकाय के विशेषणरूप से निवसित है । जो विशेषण होता है वह विशेष्य अर्थ नहीं होता किंतु विशेष्य की विशेषता बतलाता है । राजवार्तिककारने कहीं भी 'पंच' का अर्थ 'पंचास्तिकाय' नहीं किया है। अतः उपयुक्त रूपसे
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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