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________________ ६२ अनेकान्त [वर्षे ४ जो आपने यह लिखा है कि राजवार्तिककारने 'पंचत्व' स्पष्टरूप होनेसे पं० जुगलकिशोरजीन यह लिख का अर्थ पंचास्तिकाय किया है यह बिलकुल ही दिया है कि "और वह उन्हींका अपना राजवार्तिक अनुचित है। राजवार्तिककार 'पंचत्व' का वह अर्थ भाष्य भी हो सकता है" यह लिखना अनुचित नहीं है। कर भी कैसे सकते थे; क्योंकि 'पंचत्व' का न तो प्रो० साहबके इस लेखमें नम्बर ४ तकके लेखका शब्दमर्यादासे वह अर्थ होता है और न प्रकरणवश विषय पं० जुगलकिशोरजीका तो यह रहा है कि ही-ऐंचातानीसे ही होता, क्योंकि सूत्रमें 'काय' शब्द श्वे० भाष्य राजवार्तिककारके सन्मुख (समक्ष) नहीं का विधान है, जो कि अस्तिकायको सूचक है। सूत्रस्थ था, और प्रोफेसर साहब जगदीशचंद्रजीका विषय 'काय' शब्दकं होते हुए भी 'पंचत्व' का अर्थ 'अस्ति- यह रहा है कि श्वे० भाष्य राजवार्तिककारके समक्ष काय' होता है यह एक विचित्र नयी सूझ है ! आपके था। इन दोनोंके उपर्युक्त कथनकी विवेचनासे यह द्वारा ऐसी विचित्र नयी सूझके होनेपर भी भाष्यगत स्पष्ट होगया है कि श्वे० भाष्य राजवार्तिककारके समक्ष यह अभिप्रेत तो नहीं सिद्ध हुआ जो कि प्रश्नकर्ताको नहीं था। अभीष्ट है । यह बात यहाँ ऐसी होगई कि पछा खेत जबकि राजवार्तिककारके समक्ष श्वेताम्बर भाष्य को उत्तर मिला खलियान का। था ही नहीं तो फिर शब्दादि-माम्यविषयक नं०५ ____ इसी प्रकरणमें प्रोफेसर साहबने जो यह लिग्या का प्रोफेसर माहबका कथन कुछ भी कीमत नहीं है कि-"यदि यहाँ भाज्यपद का वाय राजवाक रखता । शब्दसाम्य, सूत्रसाम्य, विषयसाम्य तो बहुत भाष्य होता तो 'भाष्ये' न लिखकर अकलंकदेवको शाखाक बहुतस शास्त्रांस मिल सकते है तथा मिलते 'पूर्वत्र' आदि कोई शब्द लिखना चाहिये था" मेरी हैं, अतः नं०५ का जो प्रोफेसर साहबका वक्तव्य है समझसे यह लिग्वना भी आपका अनुचित प्रतीत होता वह बिलकुल ही नाजायज है। हाँ, उन चारों नंबरों है, कारण कि सर्वत्र लेखक की एकसी ही शैली होती के अलावा यदि कोई खास ऐमा प्रमाण हो कि जिससे चाहिये ऐसी प्रतिज्ञा करके लेखक नहीं लिम्बते किंतु अकलंकदेव भाष्यकारक पीछे सिद्ध होजाँय तो यह उनको जिस लेखनशैलीमें स्वपरको सुभीता होता है जो नं० पांचका उल्लेग्व जायज हो सकता है । अकलंक वही शैली अंगीकार कर अपनी कृतिमें लाते हैं, A देवने अपने ग्रन्थमें कहीं भी श्वे० भाष्यको उमास्वाति वन अ 'पूर्वत्र' शब्द देनेसे संदेह हो सकता था कि-वार्तिक का बनाया हुआ नहीं लिखा है तथा न आज तक मे या भाष्यमें ? वैसी शंका किसीका भी न हो इस ऐमी काई युक्ति ही देखनेमें आई कि जिसके बलसे यह सिद्ध होजाय कि गजवार्तिककारके समक्ष यह लिये स्पष्ट उनने 'भाष्ये' यह पद लिखा है। क्योंकि . राजवार्तिकके पंचम अध्यायकं पहले सूत्रकी 'आर्ष भाष्य था । जब ऐसी दशा स्पष्ट है तो फिर कहना ही विरोध' इत्यादि ३५वीं वार्तिकके भाष्यमें 'षण्णामपि होगा कि हमारे इन नवयुवक पंडितोंका इस विषयका द्रव्याणां', 'आकाशदीनां षण्णां' ये शब्द आये हैं, __कथन कथनाभाम होनेमे केवल भ्रान्तिजनक है तथा भ्रमात्मक ही है। अलमिति । तथा अन्यत्र भी इसी प्रकार राजवार्तिक भाष्यमें __ श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन । शब्द हैं । गजवार्तिक भाष्यमें यह षट् द्रव्यका विषय सरस्वती-भवन, बम्बई ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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