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________________ सम-विचारमाला - - यनि-अमन में खोलाइनसमुणकाल सुखो- ही नहीं कह सकसे | | In माइनस सका ध्रुव निश्चितापला । नालायांसंबधमे श्रालिक कोरलीजालांग पेसा समस्त मत जाय तो हि कीतरता पाय- दामों एकामों को यमीकार करत परतु"यो द्वादक रहित) और विद्धान मनिजन-सी पास पापनबधन सिमान्तकमही मानापेक्षा श्रमपेक्षाकी बी मातिय जयोफिल भी अपने सुख-दुख के कारणों का प्रथावाचकारतकी "अवलनिमित्त कारम होते हैं Princry #TriPEन संका गयाफापी व्यवस्था का श्रेय माल्य मातीतमय और विद्वानासनिक निकाल :तान मेंनी साम्यता विरोधीमामयकोरल्यं स्थानिक अनुष्ठानकायक्जेम्सादिरूप-चुभवी माद्वानार्यावविषामा श्रधाच्यतन्निऽप्यक्तिमा और तस्वज्ञान जन्यः संसोपसमा सुबकी मनि वाध्यमिति युज्यते गा इस कारिका (न: ९४) के द्वारा होती है। जप अपने में दुन्यम्सुम्खाके मदमा विगंधादिदपण देन अनन्तर, स्वामी ममतभवन पुण्य पाप धनामो फिर यामकीय पुण्य. . वपस्थ सुखदुःखादिका दृष्टि में पुग्यपालकी जो पण दना अनन्तर स्वामा : ममतभवन पापक कन्धुमसे मुक्त रह सकते हैं यदि इनके खादा दाम प्रगयाका भी पुरुष-पापका धके कन्ध होता है तो फिर युग माप सम्यक व्यवस्था अन्मतानुसार बतलाई है, जमभी साभावका की अवसर नहीं मिलं मकर और प्रतिपादक कारिका इस प्रकार है . : .. कोई मुक्त होने के संम्य ही सकमा है-गाय पापरूप विशुद्धि-संक्तेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सस्वास। दोनों कन्धोंक प्रभावके बिना मुक्ति होती ही नहीं। पुण्यसापानवोयुक्तोमचेच ध्यर्थस्तवाहतः॥ और मुक्तिक बिना यथानिककी भी क्रोई माया . इसण । बमलाया कि-बहनके मन में स्थिम्की रह सकती; माकि अपर बसलाया जा सख-दुश्वात्मक हायपरम्थ अपनेको हो चुका है। यदि पुत्राय-पापक प्रमान बिना भी मुक्ति था दसरंकाय विशुद्धिका अंग हैमी म मानी जायगी तो मृतिक-संमागायचा यांनषका, 'मंकलेशका मीनापासबको रिक जीवन के अभावका प्रसंग आएगा, जा गय- इंतु है जो युमा सार्थक, 'अथवा पापको व्यवस्था मानने वालोमस किमीको भी इस बार है--और यति विशुद्धि तथा सिंबलेश दोनों नहीं है। ऐसी हालत में आत्मसुखदुःखके द्वारा पाप से किसीका अंग नहीं है सो गयपाप मेंमें किमीक पुण्यके बन्धनका यह पकान्स सिद्धान्त भी सदोष है। भी युका मानवका-बग्ध व्यवस्थापक माम्पगायिक यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अापनेमा दुस-सानावका हेतु नहीं है बधा-भविफे कारण) मुखकी उत्पत्ति होने पर भी तत्त्वज्ञानी, वीतराशियों के बहाव्यर्थ हाम्रा है-ममकी का फल नहीं। पुण्य-पाका बन्धः इस लियजीडोत्तम किनके यहाँ मकरमेश का अभिप्राय आर्म-गौद्रध्यान के दुख-सुखक अपादनका अभिषायू न होता, मी पहिंगामस है प्रान-अदभ्यानमरिणामः मक्लेश: कोई नहीं होनी और न इस विषसमें ससक्ति पा, अकाल कदवन प्रशसी टीम मि स्पष्ट लिखा है हो होता है, तो फिर हमास का अकान मिताली और श्रीनिमा मदन भी पमा प्रष्टसहमी में अपनायों ही सिद्धि होती है। एकान्त पर्थात है। 'मलश शानक मंथि जनपक्ष में प्रयुक्त होने यह नतीजा निकलता है कि, अभिमासको लिय हुम के कारण विशुशका अभिप्राय मल्लेशाभाव दुख मुखका उत्पादत पुराय पापका हेतु है, अभिमन- है। "मदभावः विशुद्धिः" इत्य कलंक:)-- क्षायिक विहीन दव-मुखका उत्पादन पुण्यमापका हेतु सही है। लक्षणा तथा अधिनश्वर्ग:मरमविशुद्धिको अभिप्राय अब दोनों प्रकारत मिहान्ता प्रमाण नहीं है जो मिग्वशकंदिके अभावलप होता बाधित हैं. सभी विकत अड़ते हैं, और इसलिए समिदिम ध्याय पायबन्धक लिय'कोई स्थान
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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