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अनेकान्त
है तो उसके अनेक सम्बन्धियोंको दुःख पहुँचता है । शिष्यां तथा जनताका शिक्षा दुवे हैं तो उससे की लोगोंको सुम्ब मिलता है।
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ईर्यापथ शांधकर चलते हुए भी कभी कभी दृष्टि बाहरका कोई जीव अचानक कूदकर पैर न श्री जाता है और उनके उस पैसे कायात्सर्गपूर्वक ध्यानावस्था में स्थित होने पर भी यदि जीततेही उनके टकरा जाता है, और मर जाता है तो इस तरह सी मजाक मार्ग बाधक होने व उसके दुःखके - कारण बनते हैं। अनेक निर्जितकषाय ऋद्धिधारी ← वीतरागी साधुयांक शरीर के स्पर्शमात्र अथवा उन के शरीर को स्पर्श की हुई वायुके लगने से ही गंगीन नीरोग हो जाते हैं और सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे और भी बहुत से प्रकार हैं जिनमें वे दूसरोंके सुख-दुःखके काग्गा बनते हैं। यदि दूसरों के सुख-दुःख का निमित्त कारण बनने से ही आत्मा में पुराय पापका आसव-बन्ध होता है तो फिर ऐसी हालत में ये कपार्थ
साधु कैसे पुण्य पापके बन्धन से बच सकते हैं? दि वे भी पुण्य पापके बन्धन में पड़ते हैं तो फिर निर्बन्ध अथवा मोजकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि बन्धका मूलकारण कषाय है। कहा भी है." कषाय मूलं सकलं हि वन्धनम्। "सकषायखाजीवः कर्मणां योग्यान पुद्गलानादत्ते सबन्धः ।" और इसलिये अकषायभाव मोक्षका कारगा है। जब
कषायभाव भी बन्धका कारगा हो गया तब मानके लिये कोई कारण नहीं रहता । कार के अभाव में कार्यका अभाव हो जानस मोक्षका अभाव ठहरता 1 और मोक्षके अभाव में बन्धकी भी कार्ड व्यवस्था नहीं
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सकती, क्योंकि बम्ध और मोन जैम मप्रतिपक्ष धर्म परस्पर में अविनाभाव सम्बन्धको लिये होते हैं - एकके बिना दूसरेका अस्तित्व बन नहीं सकता, यह बात प्रथम लेख में भले प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है। जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य पाप के बन्धकीय था ही प्रलम्पमात्र होजाती है। अतः चेवन प्राणियोंको दृष्टिसे भी पुण्य-पापको उक्त
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एकान्त व्यवस्था सदोष है ।
आप कहा जाय कि उन अकषाय जोकि दूसरोंको सुख-दुःख पहुँचानका कोई संकल्प अभिप्राय नहीं होता, उस प्रकारकी कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषय में उनकी कोई आसक्ति
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होती है, इस लिये दूसरोंकी सुख-दुःखोत्पति में निमित्तकारण होने के बन्धको प्राप्त नहीं होते हो "फिर दूसरोंमें दुःखोत्पादन पापका और सुखापादान पुण्यका हेतु है, यह एकान्त सिद्ध न्त कैसे बन सकता है ? श्रभिप्राया भविक कारण अन्यत्र भी 'दुःखायाट्रेन में पापका और सुखात्पादनसे पूगयंका बन्ध नहीं "हो सकेगी, प्रत्युक्त इसके विरोधी अभिप्रायक कार "दुःखोत्पत्तिमे पुण्यका और सुखोत्पत्ति से पापका बन्ध भी होसकेगा। जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचानके अभि प्रायमै पूर्णसावधानीक माथ फाडेका ऑपरेशन करता है परन्तु फाड़को चीरत समय रोगी को कुछ अनिवार्य दुःख भी पहुँचता है, इस दुःखक पहुँचनेसे डाक्टरका पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दुःखविधिनाभावस्तके कारण यह दुःख भी पुण्य बन्धका कारण होगा। इसी तरह एक मनुष्य कषायभाव वशवर्ती होकर दुःख पहुंचानके अभि यम किसी कुबडेको लान मांग्ता है, लातके लगते ही अचानक काकुबड़ापन मिट जाता है और वह सुखा अनुभव करने लगता हैं, कहावते भी हैं “कुबड़े गुण लात लग गई" - तो कुचड़े के इस सुग्वानुभवनसे लात मारने वालेको पुरायफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती-सी अपनी सुविरोधिनी माना कारण पाप ही लगेगा। प्रथम वालोंका यह एकान्त सिद्धान्त कि. 'परमं सुख-दुखाउद पुण्य-पापका हेतु है पूर्णतया सदोष लिये उसे किसी तरफ भी बम्तुत नहीं सक दूसरे पति हुए श्राचार्य महादय लिखते मैं
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पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतोयदि । वीतरागी मुनिविस्ताभ्या युज्यानिमित्ततः
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