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अनेकान्त
[वर्ष ४
यह एकान्त सिद्धान्त कैस न मिल
हैं तो उसके अनेक सम्बन्धियोंका दुःख पहुँचता है। एकान्त व्यवस्था सदोष है। शिष्यों तथा जनताका शिक्षा देते हैं जो निय मकहा जाय कि उन अकषाय लोगोंका सुग्व मिलना गमावधामीकमार्थ नाकद
मार्थ मोवाक दृमगेको सुख-दुःस्य पहुँचानका कोई संकल्प ईयोपथ शाधकर चलते हुए भी कभी कभी हाधिपथमा अभिप्राय नहीं होना, उस प्रकारकी कोई इच्छा थाहरका कोई जीव अचानक कूदकर पैरे नले श्री नहीं होती और न उस विषयमे उनकी कोई प्रासक्ति जाता है और उनके उम पैग्स
दाल -प्रती इस लिय दृसगेकी सुग्व-दुःखोत्पनिमें कायोत्सर्गपूर्वक ध्यानावस्था में स्थित होने पर भी यदि निमित्तकारण हाने व बन्धको प्राप्त नहीं होते हो कोई जीत जी ATMETERN का मफिर दूसर्गम दुःवोत्पादन पापका और सुरेखापादन
जाता है और मर जाताहेता इस मनावमागम घधिक होनम व उसके दुःखक है-अभिप्रायाभाव के कारण अन्यत्र भी दुःलापाकारण बनते हैं। अनेक मिर्जितकषाय 'ऋद्धिधारी "देने में पापको और सुग्वात्पादनसे पूरायका बन्ध नही वीवरामी साधुओं के शरीर के स्पर्शमात्रमे अथको उन हो सकेंगी प्रत्यत इमत विरोधी अभिप्रायके कारण कि शरीको स्पर्श की हुमायुके लगर्मम ही गांगी मन खोत्पत्तिम पुण्यका और सुखोत्पत्तिसे. पापका बन्ध में और भी बेहतस प्रकार हैं जिनमें वे दृमरोंफ प्रायमै पूर्णसावधानों के माथ फोड़ेका ऑरेशन करता है ना यथेष्ट सुन्धका अनुभव करते . पुण्यका और सुखात्पत्तिस, पापका बन्ध
"भी हसिकेगा। जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचानक अभि सुग्व-दुःखके कारण बनते हैं। यदि दृसंगके सुग्व-दुःश्व पन्त फोड़की चौरंत ममय रोगीको कुछ अनिवार्य का निमित्त कारण बनम ही: श्रात्माम पुण्य-पापका दिख भी पहुँचता है, इस दुःखक पहुँचनेसे डाक्टरका श्रामब-बन्धा होता है ना कि ऐसी हालत में वे कषार्थ- पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी हित माधु कैम पुख्य-पापके बन्धनमा बच सकते हैं। दुखविधिनी भावन्तके कारण यह दुःख भी पुण्य यदि वे भी पुण्यापापक बन्धनमें पड़ते हैं तो फिर 'बन्धको कारण होगा। इसी तरह एक मनुष्य कषायनिर्बन्ध अथवा मानकी कोई व्यवस्था नहीं बन भाव वशवत होकर दुःख पहुंचानके अभि प्रयास सकती, क्योंकि बन्धका मूलकारण कषाय' है। कहा किसी कुबड़ेको लान मारता है, लात के लगन ही भी है.-"कषायमूल सकल हि बन्धनमू।सेकषाय- अचानक का कुबड़ापन मिट जाता है औ वह वाजीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते सबन्धः ।" सुखका-बुभव करने लगता है, कहावत' भी है। और इसलिये अकायमार्य मोनका कारण है। जब "कुबड़ागुण हात लग गई"-तो कुबड़े का इस सवाअकषायमाव भी बन्धका कारण हो गया तब माक्षक भवनस लात मारने वाले को पुण्यफले की प्राप्ति मही लिये कोई कारण नहीं रहता। कारण भभावमें हो सकती+सेमी अपनी सुर्वविधिनी माना कार्यका अभाव होजानस माज्ञका अभाव ठहरता है। कारण पापही. लगेगा। अतः प्रथमपक्ष वालोका
और मोक्षक अंभावमें बन्धकी भी कोई व्यवस्था नहीं यह एकान्त सिवात्तक 'परमे सुकुम्बा पाइन भान सकती, क्योंकि पन्ध और मोक्ष-जैम मप्रतिपक्ष पुण्य पापक्का हेन है। यातया समोर और ल धर्म परस्परमें अविनाभीवं मम्बन्धको लिये होते हैं- लिये इस किसी ताम्त हानही सक एक बिना दुसरेका अस्तित्व बन नहीं 'मकती, यह दूसरे पलको दुक्ति सहमति हुन प्राचार्य मतं प्रथम लेखमा भने प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है। महादस,निते हैं
... " जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य.
2: पुण्ये व स्वतो दुःखांस्पपिचं सुखतोयदि पाप्र बनाकी थाही प्रलापमात्र होजाती है। अत: पुण्य ध्रुष स्वता दुःखास्पापच सुखतायाद। मनीमाणिवांकी टिम भी। पुस्य पापकी उक्त वतिर मामाकडास्ताम्यायज्यानामतः
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