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________________ अनेकान्त [वर्ष४ 'क्या करना चारिए ?' देर तक शकुन-अपशकुन और पुत्रीका नाम था-मंगीकुमारी ! मंगी-गजपुत्री आदि आवश्यकीय मसलों पर विचार होता रहा। थी, दर्प तेज प्रोन और अधिकार-बल सब कुछ उस फिर जो बात निर्णयको पा सकी वह यह कि-छह मिला था ! अगर कुछ नहीं मिला था, तो राजपुत्रको जन धनकी प्राप्तिके लिए नगर-प्रवेश करें और एक 'स्वामी' कहनका मौभाग्य । उसकी शादी साम्राज्यक यहीं-जंगलम ही-लौटन तक प्रतीक्षा करं ! परदेश एक महाग्थीक माथ हुई थी । नाम था उसका का मामला, क्या जाने, क्यामे क्या हो ? हम सब 'वजमुष्टि'। यहीं विपत्तिकं महमें फँस जाँय, और घर तक खबर वजमुष्टियोद्धा था, वीर था, महान था, लेकिन भी न पहुँचे ! वे निरीह सात प्राणी अनाथ होकर, 'राजकुमार' नहीं था। किमी गज्यका उत्तराधिकार दान दानको तरमें; ऐमा मौका ही क्यों दिया जाए ? उमके लिए खाली नही था । शारीरिक सौन्दर्य में ___ और तब बड़ोंने आज्ञा दी-सूरसेनको, कि- अगर वह राजपुत्र था, तो आर्थिक दृष्टिकोण उसका 'तुम यहीं रहो !' छोटेका खयाल कर, या उसको प्रबल शत्रु! अपने कामकं अधिक उपयुक्त या अनुभवी न समझ मंगी के शरीर मे था-गज-रक्त ! और वनमुष्टि कर, पता नहीं ! यों, वह भी यथासाध्य इस भया- की माँ के बदन मे गुलामी का खून ! एक और कछादित-धन्धेमें महयांग देता रहा है ! पर, उतनसे उत्थान था, दृमरी और पतन, एक ओर तेज था, नसके अग्रज सन्तुष्ट हुए या नहीं, यह अबतक वह दूरी पार करुणा, दीनता। नहीं जान पाया है ! कोई अवसर भी यह सोचनका बहू और मासुमे मेल खाता तो कैसे ? यह सही नहीं मिला है-उम! है कि सासु का दर्जा वैमा ही है, जैसा कि बेटे की सुभानुके नेतृत्वमें वह पाँच व्यक्तियोंका जत्था तुलनामें पिताका, या शिष्यकं मुक्काविलेमें गुरुका। दबे पाँव, बन्द मुँह और जागती या सतर्क-दृष्टिको लेकिन-कब १ तभी न, जब बेटा या शिष्य उम लिए-नगरकी ओर बढ़ा ! दूमरकं धनको 'अपना' महसूम करे! और महसूम कोई करता है तब, जब बना लेनकं लिए ! व्यसनकी 'भूख' का 'तृप्ति' का उसे 'बड़ा' माननेमें उसे लज्जा नहीं, सुख मिले या स्वाद चखाने के लिए या उस महापापी स्याहीमें मिले-गौरवमय आनन्द । डूबन के लिए, जो अक्सर अन्धेरी रातमें आत्माकी पर, मंगी एक क्षगाको भी यह आनन्द उपभोग उज्ज्वलताको हनन कर देती है। न कर सकी ! किसी तरह भी वह यह न सांच सकी सरसन उसी निर्जन, भयावने जंगल में बैठ रहता कि सिर्फ 'वह' बन जाने-भरसं वह छोटी बन गई है-सहोदरोंके प्रादेशमें बद्ध । राज-पुत्री जो ठहर्ग। सजग, किन्तु मौन !!! ___ सासूके माथ उसका व्यवहार वैसा ही रहा, जैसा xx कि किसी भी बूढ़े-नौकर, बूढी-दासीके साथ सम्भव हो सकता है ! उज्जैनके महाराज-वृषभध्वज, रानी-कमला! था तो वनमुष्टिकं साथ भी कुछ कड़ा बर्ताव !
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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