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________________ किरण ३] जीवनकी पहेली १६३ बहुनसे मनुष्य ऐसे हैं, जो दुःख पर ध्यान भी विधान करते धर्मात्मा बन जाते हैं, वे उन हीकी देते हैं, इसकी शंकाओंका साक्षात भी करते हैं, इनका संस्थाओं, उनहीकी प्रथाओंकी पाषणा-प्रभावना करते अर्थ समझने की योग्यता भी रखते हैं। परन्तु वे इनका प्रभावशाली बन जाते हैं। वे साम्प्रदायिक दुनियाकी अर्थ समझनेकी परवाह नहीं करते, व बाहिरी दुनिया- वाहवाहमें आनन्दकी चरमसीमा मान गाद में ऐसे लगे है, मोहमायामें ऐमें फंसे है, कि इन साम्प्रदायिक होकर रह जाते हैं। शंकाओं का अध्ययन और अन्वेषण करने के लिये इनमें कोई याज्ञिकमार्गका अनुयायी बना है, उन्हें ननिक भी निकास नहीं, तनिक भी अवकाश काइ तान्त्रिक मागेका अनुयायी बना है, कोई भक्तिनहीं, वे बाहिरमें बड़े उदामी और पुरुषार्थी होते हुए मार्गका अनुयायी बना है। ये सब उमी ममय तक भी भीतरी विचारणामें बड़े प्रमादी और आलमी विभिन्न मम्प्रदाय वाले बने हैं, उमी समय तक हैं। वे दुःखका अंत चाहते हुए भी, म्वुन कुछ विभिन्न क्रियाकाण्ड वाले बनें हैं उसी समय तक भी करना नहीं चाहने । वे दुःखम बचनेक लिये, विभिन्न भाषावाले बने हैं, उसी समय नक दुःग्वको दूर करनेके लिये, किमी किये विभिन्न नामरूप वाले बनें हैं, उमी ममय तक कगये हलके मुतलाशी हैं, किमी बने - बनाये विभिन्न विश्वासों वाले बने हैं, जब तक दुग्यका मार्गक अभिलाषी है । व किमी ऐम उपायक दर्शन नहीं होता । जब दुःग्व श्रा खड़ा होता है, तो इच्छक हैं, जिसके द्वारा वे विना अपनी दुनियाको सबका चित्त एक ही आशंकासे भिदता है, एक ही छोड़े, विना प्रमादका छोड़े, विना परम्पग मार्गको अन्तर्वेदनामे तड़पता है, एक ही जिज्ञासाम अकुलाता छोडे, विना मांचे विचार, विना संकल्प और उद्धाम है । मबका मुखमराहल एक ही रूपका होजाता है, किये, कुछ यों ही कर कगकर, कुछ यों ही पढपढा- वह म्लान और फीका पड़ जाता है । मबका व्यापार कर, दुःखोंसे छट जाएं व इन उपायों को पाने के लिये एक ही मार्गका अनुमरण करना है। मत्र ही गंते. किमी गहगईमें जानेको तय्यार नहीं-वे इन धाते ,चीखतेपुकारते, हाय हाय करते अपनी बेबसी उपायोंको अपने प्रामपाममें ही अपने बाहिर में ही का मबूत देते हैं । ये सब ऊपरी विश्वास वाले हैं, कहीं ढंढ लेना चाहते हैं। इसीलिय व जिन परम्प- ऊपरी उपाय वाले है । ये सब बाहिरी विश्वास वाले गगत विश्वामों (Faiths) जिन परम्परागत उपायों हैं, बाहिरी उपाय वाले हैं। ये सब मिथ्यालांक वाले (Practices) को अपने इर्दगिर्द, अपने निकट है, मिथ्यामार्गी हैं। ये सब मिथ्यात्वगुणस्थानवाले हैं। देख पाते हैं, वे उन्हीको साचा हल मानकर, उन्हींको ज्ञानचेतना वाले जीवमचा उपाय जानकर ग्रहण कर लेते हैं। वे उन्हीं कुछ मनुष्य ऐसे हैं, जो बाहिरी दुनियामें रहते विश्वामोंमें अपनी श्रद्धा जमाकर स्थिरचित होजाते हैं, उन्हीं उपायोंमें जीवनका घटाकर चिन्तारहित । हुए भी, बाहिरी दुनिया में कामधन्धे करते हुए भी, हो जाते हैं। वे उन ही विश्वासवालों-उपाय वालों बाहिरी परम्पगमें चलते हुए भी, बाहिरी दुनियाम बड़े के समान रहत-महत, बोलतं चालते नामरूप धरते, असन्तुष्ट है, बाहिरी अन्धाधुन्धमं बड़े सन्दिग्ध है, क्रियाकर्म करते सम्प्रदायवाले हो जाते हैं । उनहीकं बाहिरी परम्पराओंसे बड़े विकल हैं । ये इस दुनियामें ममान मन्त्रजन्त्र पढ़त, पूजापाठ करते, विधि- अपनी कामनाओंकी तृप्नि नहीं देखते । अपनी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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