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________________ १६२ अनेकान्त [ वर्ष ४ 1 होनी जानकर अपनी शंकाओं का अंत कर लेते हैं । ये दुःखकां लिखी हुई विधि जानकर अपने दिलकी सन्तोष देते हैं 1 भीतरी उलझनोंको सुलझाने, भीतरी बाधाओं को दूर करने के लिये इनके पास कुछ भी नहीं। ये भीतरी दुनिया में बिल्कुल अपरिचित है; बिल्कुल अनजान हैं। ये भीतरी समस्यायोंको साक्षात् करने, उन्हें हल करने बिल्कुल ढ समान हैं, जब भीतरी सवाल उठकर अपना उत्तर मांगते हैं, ये उनकी उपेक्षा करके उन्हें चुप कर देते हैं, उनसे मुंह फेरकर उन्हें सुला देते हैं, गां कहनेम ये सब ही कर्मचेतनावाले है, परन्तु अपने सामर्थ्य की अपेक्षा यह भी कई प्रकार के है । इनमे बहुत तो ऐसे निर्बुद्धि हैं, कि वे परम्परागत मार्गपर चलते हुए ही अपनी जीवन नौकाको चला रहे हैं, इनमें न अपना कोई लक्ष्य है, न अपना ध्येय है, न अपनी कोई सूझ है, न अपनी खाज है, न अपनी विचारणा है, न अपनी योजना है। ये किसी भी सवालको हल करनेमें समर्थ नहीं, ये दूसरे की आज्ञा, दूसरे की शिक्षाकं अनुसार काम करनेवाले हैं। ये दूसरंके बताए, दृसरेकं सुझाए हुए मार्गपर चलने वाले हैं, ये दूसरे के बहकाये, दूसरेके उकमाये हुए पुरुषार्थ दिखाने वाले हैं। ये दूसरोंके हाथकं औज़ार हैं, दूसरोंकी इछा के साधन हैं, दूसरोंके शासन के दाम हैं । ये क्षुद्र धैर्य और साहसवाले हैं । ये जरा भी बाधा आजानेपर अधीर होकर रह जाते हैं, जरासी आपत्ति पड़ने पर अवाक् होकर रह जाते है, जगमो उत्तेजना मिलनेपर भक होकर रह जाते हैं। ये दुःखके प्रति आशंकाका भान तो करते हैं, करने, उस परन्तु साक्षात उसे नेमें असमर्थ हैं । ये दुःखको दूर करने मे बेबस हैं, दुःख से बचने में निरुपाय हैं, ये बेचारे क्या करें, दुख के सामने रोधाकर रह जाते हैं, चीख पुकार कर रह जाते हैं, यह दुःखद घटनाको एक अमिट 1 इनमें बहुत से काफी बुद्धिमान हैं, विचारवान हैं। ये अपनी मनचाही चीजोको सिद्ध करनेके लिये, उन्हें सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिये बड़े चतुर हैं, बड़े कार्यकुशल है । ये इनके लिये नित नई तरकीबें मोचते रहते हैं, नये नये उपाय बनाते रहते हैं, नये नये माधन जुटाते रहते है । ये मूढों में सरदार बने हुए हैं, निर्बलों के स्वामी बने हुए हैं, प्रचुर धनदोलन के मालिक बने हुए हैं। इनकी शोभा, इनकी महिमा, इनकी सजधज देखते ही बनती है। ये इस जगत के बढ़े चढ़े जीव हैं, वैभवशाली जीव हैं, पुण्यवान जीव हैं । परन्तु अपनी इस मनचाही दुनिय मे बाहिर, इस चातुर्यकी दुनियास बाहिर, इस ठाटबाटकी दुनियामे बाहिर ये कुछ भी नही । ये निर्बुद्धियों के समान ही निर्बुद्ध है, मृढोंक समान ही मृढ हैं । उनके समान ही दुःखका अर्थ समझने, उसकी शंकाओं को हल करनेमें असमर्थ है। ये दुःख-दर्द पड़ने पर बेबमोंके समान ही राधाकर रहजाते हैं. चीन पुकार कर रह जाते हैं, तिलमिलाकर रह जाते है, अचेत होकर रह जाते हैं। ये बेत्रमोंक समान ही दुःखका एक अ मट होनी मानकर, एक लिखी हुई विधि समझकर अपनी शंकाओंका अन्तकर लेते हैं, अपने दिलका संतोष दे लेते हैं । ये बेबसोंके समान ही दुःखको भुलाने लगे हैं, सुग-सुंदर्ग में लगे हैं, कश्चन-कामिनीमें लगे हैं, भोगमार्गमें लगे हैं, उद्योगमार्ग में लगे हैं । बेत्रमांक समान ही दुःख भुलाने के अलावा, दुःख दूर करनेका इनके पास और कोई साधन नहीं, कोई उपाय नहीं, कोई मार्ग नहीं ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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