________________
ज्यादह अपने जीवनसे भी, हम जिसकी खैर मनाते हैं !
किसको कहें- 'हमारा है !'
[ नं० - श्री 'भगवत्' जैन ]
जिस शिशुको अपना कह-कह कर, हम फूले नहीं समाते हैं !
शादी होकर आते-आते, वह भी होजाता न्यारा है ! हम जिसे मानते 'अपना' थे, रे ! वही चलाता आरा है !
1
हम किसको कहें - 'हमारा है !'
हम किसको कहें - 'हमारा है !' जब साथ जवानी थी इसके, सोलह आने था अपना 'तन' !
अब आज बुढ़ापा आया तो, इसको भी सूझा परिवर्तन !!
तब यह घर-भर का पोषक था. अब लाठी इसे सहारा है! हम किसको कहें- 'हमारा है !'
खिदमत इसकीमें लगे रहे, अनजाने भी तकलीफ न दी ! उलटी एहसान फरामोशी, या करना है यह श्राज बदी !! निर्मोही आँखें फेर रहा, जब बजा कुँच नक्कारा है ! - हम किसको हैं - हमारा है ! वीरकी शासन- जयन्तीका सुखद शुभ समय आया ! प्रबल अत्याचार, पापाचार का था भार भूपर भूलकर सत्पथ, कुपथ चल रहे थे जब सभी नग् ; सुजन भी हिमा-कुचालीकी कुटिलतामे फँसे थे और नेता नामकी लिप्सा - दुराशा में धन थे ।
जब तक रहती कुछ स्वार्थ-गंध, साथी अनेक दिखलाते हैं !
मिटने ही उसके देखा है'हा' अपनेको पाते हैं !
वे वक्रादार प्रेमी भी सब कर जाते कहीं किनारा है। हम किसको कहें - हमारा है !'
वीरकी शासन - जयन्ती
100=
श्रीपं काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित'
पैसा मुट्ठीने है तब तक, कहते- 'हम सभी तुम्हारे हैं !' मुट्ठी खुलने हो बनजाते, सब हृदय-हीन, हत्यारे हैं !!
पीड़ितों, पतितों, अछूतोंके लिये जब था न साया ! तब अहिंसा धर्मका उस वीरने पादप लगाया !! जीव, थिर-जंगम सभीका हितभरा जा तीर्थ पावन, धन्य है यह वीरका सन्देश वाहक मास सावन ; ज्ञानकी वर्षा हुई, विज्ञानकी आई हवाएँ फैल फिर संसार - उपवन में गई
,
विद्या लताएँ ।
तृषित, श्राकुल प्राणियों को शांतिमय मृदु-पय पिलाया ! और फिर लाकर उन्हें आचार-आसन पर बिठाया !! न्याय भी अन्यायके ही पक्षमें जब बोलना था, घोर हिंसा - विष, अहिंसा-सुधा-रसमें घोलता था ; सबल, निर्बलको हड़पनेमे न था संकोच लाता, सोरहे थे सब पड़े तब, कौन फिर किसको जगाता ?
* यह कविता ६ जुलाईको वीरसेवामंदिरमे
दूर कर तमको प्रभाकर वीरका सु-विकास छाया ! वीरकी शासन- जयन्तीका सुखद शुभ समय श्राया !! उत्सवके समय पढ़ी गई ।
ॐ