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________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य [ मूल लेखक-प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० आई० ई० एस० ] ( अनुवादक-सुमेरचन्द जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शाम्बी. बी. ए., एल-एल. बी०) [गत किरण से आगे] व्यापारीनं अपनी कन्याका विवाह इस डाकूके माथ चाहिये ।' पत्नीनं कहा 'नाथ! बहुत पछा, मैं भेटकी कर दिया। उस स्त्रीने अपने पतिक प्रेमको स्वाधीन करनेका सामग्री तैयार किये लेती हूँ।' निश्चय किया। उमी ममयमं वह सम्पूर्ण प्राभूप से अपने पूजाकी सब सामग्रीको तैयार कर उसने अपने पनि श्रापको मुमजित करने लगी थी, वह अपने पनिक लिए कहा- आइयेर लें।' पनिने कहा 'प्रिय ! तुम्हारे कटुम्बिग्ण स्वयं भोजन बनाती थी। कुछ दिनके बीनने पर उम डाकने को पीछे ही रहना चाहिये । तुम बहुमुख्य वसोंको पहिनलो, अपने मन में सोना, 'मैं कर इस स्त्रीको मार मागा. इसके बहुमूल्य मणियोम अपने आपको भूषित करो, और तब हम जवाहरातों को ले म गा. उन्हें बेनगा और इस तरह लोग प्रानन्नपूर्वक हँसने और क्रीया करते हुए चलेंगे।' किमी ग्वाम सरायमें मान करने के योग्य हूंगा? अच्छा! पत्नीने ऐसा ही किया। जब वे पर्वतकी तलहटीमें पहुंचे, तब इसका यह मार्ग है।' डाकृने कहा 'प्रिये ! अब यहां हम दोनों ही पागे जावें. ___ यह सोचकर वह अपने विम्तम्पर लेट गया, और उसने हम बाकी साथियोंको एक गाडीमें वापिस भेज देंगे। तुम मोजन करनेसे इन्कार कर दिया । वह उसके पास आई और पूजाकी सामग्री वाल पात्रको अपने हाथमे लेलो और खुन पूछने लगी क्या श्रापको कोई पीड़ा है ?' उमने उत्तर लकर चलो, पनीने सा ही किया। दिया बिल्कुल नहीं।' ने कहा, 'तब क्या में माता-पिता चाकूने उम्मे अपनी भुजानों में पकर कर पर्व पर बढ़ना श्राप पर नाराज़ होगए ?' 'नहीं प्रिय ! वे मुझ पर प्रप्रसन्न शुरु किया और वे अन्तमें डाकुओंकी चट्टान पर पहुँच गये । नहीं है. उसने कहा । पम्नीने पहा 'नब फिर क्या बात है?' इस पर्वत पर एक श्रोग्म ही नद सकते थे, किन्तु दूसरी उसने कहा प्रिय ! उस दिन जब मैं बन्धनबद्ध होकर नगर योर एक सीधी चट्टान है, जिस परंप द्वार लोग नीचे फेंक मेंस लेजाया गया था, तब मैंन डाकुओंको चट्टान पर अधिवास जाने हैं, और भृतल पर पहुँनेक पू. ही वे ग्वा एखण्ड हो करने वाली देवी के समक्ष बलि चढ़ानेकी प्रनिः । कर अपने जाते हैं. इस कारण हम वाकुओंकी चट्टान' कहने है। हम प्राणों को बनाया था। उसीकी देवाशत्रिक प्रमादसे मैंने तुम्हें शैलके शिग्वर पर चढ़कर झीनं कहा जाय ! बलि बढ़ाइयं ।' अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त किया। मैं इस विचारमें था, कि पनिने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसने पुनः पूछा 'नाथ ! प्राप में देवीके प्रागे बलिदान करने के बारेमें कीगई अपनी प्रतिज्ञा क्यों चुप हैं ? इस पर उमडने कहा 'इम बलिकर्म मेग का किस प्रकार पालन करूंगा? उसने कहा 'नाथ ! आप कोई प्रयोजन नहीं है। मैंने यहाँ बलि की मामी महिन तुम्हें चिन्ता न कीजिये, मैं बलिदान्की व्यवस्था कर लूगी।' लाने में छल किया है। उसने पूछा तब बार मुझे यहाँ किम कहिये ! क्या प्रायश्यकता है? हाकूने कहा 'मधुमित लिए ना? उम डान कहा 'मुम्हारे प्राण हरणा करनेको, चावलका मिष्टान तथा तामपुष्प-समन्वित पंच प्रकारके पुष्प तुम्हांलोको लेनको तथा भाग जाने की मैं मुम्हें लाया है।'
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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