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________________ ३६६ अनेकान्त [वर्ष ४ - मरणसे भीत होकर उसने कहा-'स्वामिन् ! मेरे रत्न और की कृपा कीजिये ।' उस ढाकुने कहा 'प्रिये ! बहुत अच्छा।' मेरा शरीर अापके ही हैं, आप इस प्रकार क्यों कहते हैं ?' फिर वह चट्टान के कोने के समीप खड़ा हो गया. ताकि वह उसने बारबार या अभ्यर्थना की कि ऐसा मत कीजिये। किन्तु बी उसकी पूजा-वन्दना कर सके। उस राकका एक ही उत्तर था कि 'मैं तुमको मार डालू गा।' उस स्त्रीने डाकूके चारों ओर घूमकर तीन परिक्रमायें उसने सामाखिर ! मेरे प्राण बेनेसे भापको क्या लाभ की। इस कार्य में उसने डाकूको अपने दाहिने हाथकी भोर होगा? हम रनोंको के लीजिये और मेरे प्राणों की रक्षा रखा था और चार स्थानों में उसं प्रणाम किया था। इसके कीजिये । इसके बाद मुझे माताके समान मानना, अथवा अनन्तर उस स्त्रीने कहा 'नाथ ! यह अन्तिम अवसर है जब नहीं तो मुझे अपनी दासी और अपने लिये सेवा करने वाली कि मैं प्रापका दर्शन करूंगी, अब आगे न पाप मुझे देखोगे रहने देना। यह कहकर उसने एक पथ पढ़ा जिसका भाव और न मैं आपको देखूगी।' इतना कहकर उसने उसका यह था-'इन स्वर्णके कड़ोंको खो, मणि जडित सारे भाभू. आगे पीछेसे आलिंगन किया। पश्चात् उसके पीछे खड़ी हो पण खो, मेरा सर्वस्व लेलो, और मेरा स्वागत करो, अथवा कर, जबकि वह चहानकी कली (किनार) के पास खड़ा था, मुझे अपनी वासीक रूपमें पुकारो।' उसने अपना एक हाथ उसके कंधे पर और दूसरा पीठ पर यह सुनकर डाकूमे उससे कहा-'तुम्हारे ऐसा करनेपर रखकर उसे चट्टान परसे नीचे ढकेल दिया। इस प्रकार वह यदि मैं तुम्हें जीवित छोड़ दूंगा, तो तुम जाकर अपने माता- डाकू पर्वतकी गहरी खाई में गिरा और भूतल पर पड़ते ही पितासं सब हाल कहोगी। अतः मैं तुम्हें मार डालूगा। टुकड़े टुकड़े गया। उस डाकूपर्वतके शिखर पर निवास बस इतनी ही बात है। अब अधिक सन्ताप मत करो।' करने वाली देवीने इन दोनोंके कार्योका अवलोकन किया इसके बाद उसने इस भाव वाला पच पढ़ा-'अब तुम और उस महिलाका गुणगान करते हुए एक पद्य कहा, जिस अधिक दुःखी मत होभो। अपनी चीज़ोंको शीघ्र ही बांधलो का भाव यह था कि-'बुद्धिमता केवल पुरुषोंकी ही संपत्ति अब तुम्हें बहत काल तक जीवित नहीं रहना है. मैं नहीं है। बी भी पुद्धिमती होती है और वह यदा कदा तुम्हारा सर्वस्व हरण करूंगा। उस स्त्रीने अपने मनमें विचार उसका प्रदर्शन करती है।' किया 'कितमा शरारती कृत्य है पह!' मस्तु, बुद्धिमत्ता पकाने . डाकूको बट्टानम्मे गिगनेके अन्तर उस बीने अपने मन और खाने की चीज़ नहीं है, किन्तु उसका मतला यह है कि में सोचा- अगर मैं घर जाऊंगी तो घरके लोग मुझसे पूड़ेंगे, खोग कार्य करने के पूर्व में सोच-समझकर काम करें। माछा. तुम्हारा पति कहाँ ? इसके उत्तरमें यदि मैं यह कई कि मैं इसके साथ निबटनेका मार्ग सोगी। यह विचार कर मैंने उसे मार डाला, तो वे अपने बच्चन-वाणोंसे मुझे छेद उसने इस कहा-'प्राणनाथ ! जब उन लोगोंने उकैती डालेंगे और कहेंगे 'हमने इस दुष्टको बचानेको सहस्रमुद्राओं बाते हुए तुम्हें पकड़ा था और तुम्हें सहकपरसे वेजे जा रहे की जांच दी और अब तुमने उसे मार डाला!'कदाचित् मैं थे, तब मैंने अपने माता-पितासे कहा था, उससे उन्होंने यह कहूं कि वह मेरे रस्मोंके हेतु मेरा प्राण हरण करना सहन मुद्राओं को जांच रूपमें देकर तुम्हें बुहाया था और चाहता था तो खोग मेरा विश्वास नहीं करेंगे। अब तो घरसे हमें अपने महलामें स्थान दिया। तबसे मैं तुम्हारी हितैषिणी मेरा सम्बन्ध समाप्त हो चुका ।' उसने अपने जवाहरातीको फेंक रहीमाज मुझे पापकी पूजा करनेका अवसर प्रदान करने करके अखका रास्ता लिया और कुछ काल पर्यन्त पर्यटन
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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