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________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य किरण ३ ] पूर्व ही जीवकने अपने मित्र बुद्धिषेणके साथ यह व्यवथा करली थी, कि वह मित्र 'कामदेव' के पीछे मंदिरमें छुपा रहेगा और जब 'सुरमंजरी' देवतासे 'जीवक' को प्राप्त करने का वर मांगेगी, तब वह मूर्तिके पीछेसे अनुकूलता व्यक्त करनेवाला उत्तर देगा। दूसरे दिन जब सुरमंजरीने अपनी दासियों के साथ कामदेव के मंदिर में जाना चाहा तब उसने अपनी सवारीम इस वृद्ध ब्राह्मणको भी बिठा लिया था। उसे मंदिरके एक मामनेके कमरे में छोड़ कर 'सुरमंजरी' मंदिरके भीतर पूजा के लिए गई । जब पूजा पूर्ण हुई तब उसने 'कामदेव' में प्रार्थना की कि उसका मनोरथ सफल हो। शीघ्र ही मंदिर के भीतर यह ध्वनि निकली कि हां। तुमने 'जीवक' को पहले ही विजित किया है ।' महान हर्षमें उसने घर लौटना चाहा और जब वह वृद्ध भिक्षुकको साथमें ले जानेके लिये गई, उसने देखा कि वृद्ध ब्रागा भिक्षुक के स्थान पर युव राज ‘जीवक' वहां था । उसके आनन्दका पार नहीं था | उसने बड़े अनिन्दकं साथ उसे पकड़ लिया और यह प्रगट किया कि वह उसके साथ विवाह करेगी। यह बात उसके पिता 'कुग्दश' को सूचित की गई । उसने तत्काल ही विवाह उत्सव करके आनन्द व्यक्त किया। इस 'राजमापुर' से उसने अपने उपपिता की अनुज्ञा ली और अपने मित्रोंके साथ अश्व व्यापारी के में प्रस्थान किया । मण्मगल लंबगम्—इम प्रकार जीवने अपने मित्रो के साथ अपने मामा गोविन्दराजकी भूमि 'वियनाड' में प्रवेश किया। उसके मामाने बड़े हर्ष से उसका स्वागत किया । वहां उसने मामासे कट्टियंगाग्मके द्वारा हड़पे गये अपने हेमांगददेशको पुनः जीतने की पद्धतिके विषय में विचार-विमर्ष किया । २२३ गोविन्दराजने अपने स्थानमे कट्टियंगारम्को एक व्याज से बुलानेका प्रयत्न किया। इस गोविन्दराजकी एक सुन्दर कन्या थी, जिसका नाम 'लकनै' था । उसने स्वयंवर के नियम घोषित करा दिये और वराह श्राकृति धारी एक यंत्रको स्थापित किया, जो सदा घूमा करता था; जो गतिमान वराहको छेदेगा, वह राजकन्याका पति होगा । कट्टियंगारम्' तथा दूसरे बहुत में नरेश गोविन्दराज के दरबार में उपस्थित थे, ताकि स्वयंवरमे अपने अपने भाग्यकी परीक्षा कर सकें, किन्तु वास्तव में कोई भी सफल नहीं हुआ । अन्त मे एक गजराज पर स्थित 'जीवक' दिखाई पड़ा. उसके दर्शनमात्रनं 'कट्टियंगारम' को भयान्वित कर दिया । जिस 'जीवक' को उसने मृत एवं नष्ट समझा था, वह तो उसके सामने पूर्ण रूपसे जीता जागता था । वह हाथीकी पाठस उतरा और उसने अपने बाणसे सफलता पूर्वक वराह के निशानको बेधितकर स्वयंवर‍ में राजकुमारीका पाणिग्रहण किया । तब उसके मामा 'गोविन्दगज' ने यह स्पष्टतया घोषित किया कि यह युवराज कौन था ? 'कट्ठियंगारम्' को यह अल्टिमेटम दिया कि तुम उसका राज्य लौटा दो, किन्तु कट्टियंगारमन चुनौती स्वीकार की और युद्ध करना पसन्द किया | व्यवस्थित युद्ध में वह हारा और अपने शत पुत्रों सहित मारा गया । जीवक विजयी हुआ, इस विजयकं समाचारमे उसकी वृद्धा माता महान आनंदित हुई और उसने यह अनुभव किया कि उस का जीवनोद्देश सफल हो गया । प्रमगल लंबगम् - इस विजय के अनन्तर जीवक अपने नगर 'गजमा पुग्म्' को गया वहाँ उसका राज्यतिलक महोत्सव बड़े विशालरूप से मनाया गया जोकि 'संस्कृतके ग्रन्थांनरोम इससे काष्ठांगारका बोध होता हैं I
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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