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________________ अनकान्त [वर्ष ४ अप्रेल मन १९४० में एक दिन पतिने कहा-'तुम्हारा स्वा- दुसरेमे अधिक अधिकार नहीं रखता । स्वयं ज्वरपीड़ित स्थ्य ठीक मालूम नहीं होना, जान पड़ता है तुम भले प्रकार अवस्था तकमें तुम मेरी मेवा करती रही हो--मैं तुम्हारे ऋण इलाज नहीं करवाती, क्या बात है ? तब आपने उत्तर दिया से किस प्रकार उऋण होऊंगा।' इस पर वह अपनी तुच्छता कि-वैधकी दवाई ना लेती ही हूं पर लाभ नहीं होरहा है।' प्रकट करती हुई अपने जीवनकी कई बातोंको दुहराते हुए इम पर पनिने कहा--'तो मुझमे कहा क्यों नहीं ?' तब श्राप कहने लगी कि-"मैंने तो आपका कुछ किया नहीं और न कहने लगी कि--'आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती है, आप अपने कर्तव्य तक को ही पूरा किया है, उमपर भी अब श्राप का चित्त यों ही किमी परिजनकी बीमारीमे उद्विग्न हो उठता संमेवा करवाकर क्या 'पापन' बनू?" है और विशेष चिन्तित हो जाता है, एसी हालत में प्राप बीमारीमें जितना कष्ट आपको था उतना कष्ट यदि और को विशेष कष्ट कैसे देती ? मुझे तो ज्वर बना ही रहता है। किमीको होता तो न जाने परिजनोंकी कितनी आफत होती, इनना कहना था कि बाबू छोटेलालजी का मन घबरा उठा। पर आप बड़े ही धैर्य, संतोष एवं सहिष्णुताके साथ उग्म दूसरे ही दिन डाकठरी परीक्षा हुई और एक्सरमें यक्ष्मा महन करती रहती थीं और कभी भी किसी पर क्रोध प्रकट (थाइसिम) की आशंका होनेपर कलंजमें गैस भरनका इलाज नहीं करती थीं। पलंगपर पड़ी पड़ी भी निन्य भगवत भक्ति चालू किया गया । क्योंकि डाक्टरी दवाईका अापन म्याग कर में लीन रहती थीं । मृत्युम प्रायः १४१५ दिन पहले आपने रक्ग्वा था, उस ग्वाती नहीं थीं। डाक्टरीके बाद हकीमी, फिर समाधिमरण सुननेकी इच्छा प्रकट की। उसो दिनम अन्त तक कविराजी और पुनः डाक्टरी (इनजेकशन) का इलाज होता निन्य दोनों समय समाधिमरण का पाट मनती रही और उसके रहा, पर रोग कामं नहीं आया। प्रत्येक वाक्यका अर्थ समझती रहीं। एक दिन श्राप पतिसे कहने लगी कि-'मैं अच्छी तो पतिको यह विश्वास होचुका था कि गेग अमाध्य है. होनेकी नही व्यर्थ ही आपको कष्ट उठाना पड़ रहा है, इससे इससे अापके धार्मिक भावोंको बनाये रखनका पूर्ण प्रयत्न तो शीघ्र अन्त होजाय तो अछा हो।' यह कहतं हुए उसके होता रहा और धी धीर अापकी इच्छानुसार मब परिग्रहका अभ्यन्तरका दर्द दोनों नेत्रों में दीप्त हो उठा। पनिने कहा ध्याग और चार प्रकारके दानीका करवाना बद्दी मावधानीम 'देग्यो, तुमने कभी भी मेग्म कोई मेवा नहीं ली और जिस तथा मृत्यु के अनेक दिन पूर्व ही प्रारम्भ होचुका था। दिनम तुम मेरे पास प्राई हो मेरे लिय कष्ट ही कष्ट महती रही हो और अब भी जहां तक बनता है मुझम किसी प्रकार आप पनिसेक दिन कहने लगी कि--'मझ और की मेवा नहीं लती हो, तुम्हारी यह धारणा कि "भारतीय किसी बातकी चिन्ता नहीं है किन्तु आपकी तबियत अच्छी प्रियांका जन्म ही इमलिय होता है कि वे जीवनपर्यंत पतिकी नहीं रहती है और मैं सेवासे वंचित हूं, आपकी सेवा कौन मंबा करती रहे और काट होनेपर भी उनमे किसी प्रकारकी करेगा ?' पतिने कहा--'भगवान तुम्हारी रक्षा करें. मुझे संवा न करावे. पनि मेवा लनका अधिकार स्त्रियों को नहीं अब तुमसे कोई संवा नहीं चाहिये। मेरी मनोकामना यही है" अाज इनन कष्ट और अम्ममर्थनाकं समयमें भी जागृत है, है कि तुम भले ही पूर्ण अच्छी न होवो पर तुम किसी भी यह देखकर आश्चर्य होता है ! मैंने कितनी बार तुम्हें मम- प्रकार जीती रहो-मुझे इमीमें संतोष है। आजसे हम दोनों माया है कि पति-पत्नी दोनोंका परस्पर ममअधिकार है--एक मित्रताका-भाई बहनका--सम्बन्ध रक्वेग, भगवान तुम्हें
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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