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________________ किरण १] आदर्श जैनमहिलाका वियोग सनकर भी आप कभी किमी पर क्रोध नहीं करती थीं । सदा को कष्ट पहुंचे। आप स्वयं कष्टमें रहना पसन्द करतीं परन्तु ही हसमुख तथा प्रसन्नवदन रहती थीं, और इससे आपकी पतिको कष्ट देना नहीं चाहती थीं। चित्तशुद्धि एवं हृदयकी विशालता स्पष्ट जान पड़ती थी। गृहकार्यों में योगदान और अतिथिसेवा यद्यपि आप पढ़ी लिग्वी बहुत कम थीं, परन्तु विवेककी पतिकी सेवा-शुश्रूषाके अतिरिक्त गृहशोधन, रन्धन आपमें कोई कमी नहीं थी। और यह इस विवेकका हो और अतिथिसेवादि-जैसे गृहकार्यों में भी पाप सदा ही पूरा परिणाम है जो इतने बड़े कदम्बके छोटे बड़े सभी जन श्राप पर प्रसन्न थे--२५ वर्षके गृहस्थ जीवन में आपका अपनी योगदान करती थीं । श्रीमानकी पुत्री और श्रीमान्मे विवादम देवगनियों-जिठानियों और दो ननदोंके साथ कभी कोई हित हूं, इस अभिमानमे आपने कभी भी इन गृहस्थोचित मन-मुटाव या लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ। कुटुम्बी जनोंमें मांसारिक कार्योको तुच्छ नहीं समझा। अतिथि-मेवामें प्राप परस्पर किसी भी प्रकारका कोई कलह, विसंवाद या मन बहुत दक्ष थीं और उसे करके बड़ा प्रानन्द मानती थीं। मुटाव न होजाय, इसके लिये आप अपने पतिको भी सदा आपके पति बाबू छोटेलालजीका प्रेम भारतके प्रायः सभी मावधान रखती थीं। और आपके इस विवेकका सबसे बड़ा प्रान्तोक अनेक जेन अजेन बन्धुनोंसे होनेके कारण आपके घर परिचायक तो आपका धर्माचरण एवं सदाचार है जो उत्तरो- पर अतिथियोंकी-मेहमानोंकी--कोई कमी नहीं रहती थी तर बढना ही गया और अन्तमें अपनी चरम सीमाको बारहों महीने कुछ न कुछ अतिथि बने ही रहते थे, और उनके अातिथ्य-सम्बन्धी कुल इन्जामका भार आप पर ही रहता पहुँच गया। था। जिन लोगोंने आपका आतिथ्य स्वीकार किया है वे पनिभक्ति और आज्ञापालन आपके सत्कार और प्रात्मीयताकं भावोंमे भले प्रकार पनि भक्ति प्रापमें कूट कूटकर भरी हुई थी। हिन्दुधर्म परिचित हैं। की पाख्यानांक अनुसार श्राप पतिव्रतधर्मका पूरी तरहम जीवनकी इन सब बातों, प्राचार-विचारों एवं प्रवृत्तियों पालन करनी थीं—पनिको हर्षित देग्वकर हर्षित रहतीं, से स्पष्ट है कि आप एक महिलारत्न ही नहीं, किन्तु आदर्श दग्विनमन देखकर दुःग्व माननीं और यदि वे कुपित होने जैनमहिला थीं । अब आपके अन्तिम जीवनकी भी दो तो आप मृदुमाषिणी बनजाती तथा बैंकसूर होते हुए भी बात लीजिये। समा-याचना कर लेतीं। पतिकी प्राजा अापके लिये सर्वोपरि थी, पाप बड़े ही प्रेम तथा प्रादरकं साथ उपका पालन करती थीं और पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करकं कोई भी जीवन-लीलाकी ममाप्ति काम करना नहीं चाहती थीं। आज्ञापालन आपके जीवन- यों तो कुछ असे श्रापका स्वास्थ्य कुल्लू-न-कुछ खराब का प्रधान लक्ष्य था और पतिपर आपका अगाध प्रेम तथा रहने लगा था पर दिसम्बर सन १९३६ वह कुछ विशेष विश्वास था। इसीसे प्राप दिन-रात पनिकी सेवा-शुश्रूषामें ग्वराब हो गया था। चूंकि पतिका म्वास्थ्य कई वर्षसे लगी रहनी थीं और इस बातका बड़ा ध्यान रग्वनी थीं कि संतोषप्रद नहीं था, इससे अपनी तकलीफ़को पाप मामूली कोई ऐसी बात न की जाय और न कही जाय जिसमे पति बताती रहती और मामुली ही उपचार करती रहती थीं। करणाव
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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