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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बहनोंमें आप सबसे छोटी और माताकी लाइली पुत्री थीं। यह सब आपका दैनिक कार्य था। अष्टमी, चतुर्दशीको बाल्यावस्थामे ही सीधे, सरल और कोमल स्वभावकी होनेके उपवास रखना, पर्युषणादि दूसरे पर्वदिनों में प्रकाशन करना, कारण सभी परिजन आपमे बड़ा स्नेह रखते थे और आपको रात्रिमें भोजन नहीं करना और नीर्थवन्दना आदि धार्मिक बड़ी श्रादरकी दृष्टिमे देवितं थे। पितृगृहमें आपको सब सुग्व- क्रियाका अनुष्टान आप बड़े प्रेम माथ करती थीं । कई मामग्री सुलभ थी--कोई बानकी कमी नहीं थी--और आप बड़े बड़े वनोंका अनुष्ठान भी प्रापन किया, जो अनेक वर्षांम अच्छे लाइप्याग्में पली थीं। पूरे हुए, व्रतोंकी पूर्तपर उनका उद्यापन भी किया। उद्यापन अापका विवाह संस्कार कलकत्ता दिगम्बर जैन के समय गिनतीक कुछ उपकरणोंको ज़रूरत न होनेपर भी समाजके सुप्रसिद्ध मठ रामजीवनदाम सरावगीके पांच पुत्र रूढिक तौरपर मन्दिरजीमें चढ़ाना आपको इष्ट नहीं था, इस बाबू छोटलालजी के माथ हुआ था। ममुरालका परिवार भी लिय श्राप अपनं संकल्पितको आवश्यक कार्यों में लगा श्रापको बहुत बड़ा प्राप्त हुआ। यहां भी आपको अपने गुणों देती थीं और जहां उपकरणों का अभाव देखती थीं वहां ही के कारण यथेष्ट अादर-सत्कार मिला और किमी बानकी कोई उन्हें देती थीं। अापकी यह मनःपरिणति उपयोगितावादको कमी नहीं रही । यद्यपि अापके कोई संतान नहीं हुई, फिर दृष्टिमें रग्वन वाले विवेकको सूचित करती थी। भी श्राप मासकी सब बहुप्रोम लाडली बह बनी हुई थीं अापका प्राचार-विचार, श्राहार-विहार और रहन-सहन मासको आपस इतना अधिक प्रेम था कि उसे अपने मन्की अन्य महिलाअाम बहुत कुछ भिन्न था। ग्वानपान, वस्त्राभूषण दो बात इस बह कहे विना कभी चैन ही नहीं पड़ती थी। राग-रंग प्रादि किसी भी इन्द्रियविषयमें श्रापकी लालमा श्रापने मतानके प्रभाव पर कभी भी दव अथवा ग्वेद प्रकट नहीं थी। समयपर जैसा भोजन मिल जाता उमाम मन्तोष नहीं किया और पापका हृदय इतना उदार एवं विशाल था माननी, बस्त्राभूषण के लिये कोई खास श्राग्रह करनं हा कभी कि उसमें प्रदेवमकाभावका नाम नहीं था। श्राप जेठ किसी ने नहीं देग्वा. विलासितामं श्राप कोसों दूर रहती थीं। देवरोंकी मंतान को अपनी ही मतान समझती थीं और उसी बाग़-बगीचों, ग्वेल-तमाशी, सिनेमा-थियटरों में जाना भी आप दृष्टिपे उनके बालक का लालन-पोषण तथा प्रेमालिंगन किया को पसन्द नहीं था-पसन्द था आपको मादक साथ करती थीं। इसीसे वे बालक भी श्रापमं बहुत अधिक संतुष्ट जीवन व्यतीत करना और अपने धार्मिकादि कर्तव्योंक पालन रहतं और प्रेम रखते थे। परिवारके सभी जन प्रापस खुश थे। की ओर मदा मावधान रहना। इसीस श्राप प्रायः घरपर धर्मसंस्कार और आचार-विचार रहकर ही सन्तुष्ट रहती और प्रानन्द मानती थी। आपका बाल्यावस्थामै अापक धर्मसंस्कार कुछ ही क्यों न रहे हो, परन्तु श्वशुरगृह मुसराल) में अातं ही जैनधर्मक प्रति हृदय बड़ा ही सरल, दयालु, नम्र और उदार था। छल कपट, मिथ्याभाषण और विश्वासघात में पाप आपक श्रापका गाढ अनुराग होगया, यहांक धार्मिक वातावरण श्राप बहुत प्रभावित हुई और पूर्णरूपम जैनधर्मका पालन पाम तक नहीं फटकते थ। क्रोध करना, कठोर वचन बोलना करने लगी। नित्य श्रीनमन्दिरको जाना, वहां जिनप्रतिमा और दूसरोंको दोष देना, यह सब आपकी प्रकृतिमें ही नहीं सम्मुख स्थित होकर भक्तिभावमै स्तुतिपाठ पढ़ना--दर्शन था। जिसका पालन-पोषण विशष लाड-प्यारमें हरा हो पूजन करना, शास्त्र सुनना, दोनों वक्त सामायिक करना, उसके लिये थाम भी अप्रिय शब्द क्रोध उत्पन्न कर सकने तत्वार्थमूत्र तथा भक्तामरादि अनेक स्तोत्रोंका पाठ करते रहना हैं, परन्तु हृदयमें घाव कर देने वाले कठोरम कठोर शब्दोंको
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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