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________________ किरण ८ ] यह है कि श्वेताम्बर भाग्य में 'अवस्थितानि च' और न हि कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरंति' इस रूपसे दो वाक्य हैं, जबकि राजवार्तिकमे 'वृत्तावुक्तं' के अनन्तर "अवस्थितानि धर्मादीनि नहि कदाचित्पं चत्वं व्यभिचरन्ति" इस रूपमे एक वाक्य दिया है। यदि अकलंकदेव श्वेताम्बर भाष्यके उक्त वाक्योंको उधृत करते तो यह नहीं हो सकता था कि वे उन्हें ज्योंके त्यों रूपये उधृत न करते । अतः यह कहना कि "इसी भाष्यसे उठाकर अकलंकदेवने अपने ग्रन्थ में 'उ' कहकर इस वाक्यको दिया है” नितान्त भ्रममुलक है । यदि 'वृत्ति' शब्द के प्रथमेसे विवरण-भाष्य ही प्रो० सा० का अभीष्ट है तो उसका स्पष्टीकरण मयुक्तिक-सम्मति लेखकं ६० वें पृष्ठ के टिप्पणसे हो जाता है, जिसका स्पष्ट आशय यह है कि राजवार्तिक पत्र १९१ में 'आकाशग्रहणमादौ' इत्यादि ३४ वीं वार्तिक के विवरण अर्थात् भाष्य में धर्मादिक द्रव्योंको संख्यावाचक 'पांच' शब्दसं निर्देश किया गया है, उसका पाठ राजवार्निक 'स्यान्मतं धर्मादीनां पंचानामपि द्रव्याणा' इस प्रकार है। अतः कहना होगा कि यहांके पंचको लेकर ही 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्र के नं० ३ के वार्तिक और भाष्य में जो धर्मादि द्रव्यों को हा निर्देश किया है उसीके ऊपरका शंका-समाधान उक्त सूत्रके वार्तिकनं० ८ और उसके भाष्य में दिया गया है, जिसमें शंका समाधानका विषय राजवार्तिक के पूर्ववर्ती दिगम्बर तत्त्वार्थसूत्र के 'कालश्च' सूत्र से संबंध रखता है । अतः यहाँ श्वेताम्बर भाष्य की वार्ता तो कपूरवत् अथवा 'छूमंतर' की तरहसे उड़ जाती है— उसका इस राजवार्तिकके प्रकरण में कुछ भी स्थान नहीं है। इतने स्पष्टीकरणके होने पर भी प्रो० सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ४४५ मा० के मस्तिष्क में यदि गजवार्तिकके उस वाक्यविषय में श्वेताम्बरभाष्य-विषयक ही मान्यता है तो कहना होगा कि वह मान्यता आग्रहकी बग्मसीमाका भी उल्लंघन करना चाहती है। क्योंकि अभी तक किसी भी पुष्ट प्रमाण द्वारा यह निश्चय भी नहीं हो पाया है कि श्वेताम्बरीय तस्वार्थ भाष्यका समय अकलंकसं पूर्वका है। हो सकता है कि प्रस्तुत श्वेताम्बर भाष्य की रचना गजवार्तिक के बाद हुई हो और उसमें वह पंचस्त्र विषयक वाक्य राजनार्तिक कुछ परिवर्तन करके ले लिया गया हो, और यह भी संभव है कि दोनों ग्रंथोंमे उक्त वाक्योंकी रचना एक दूसरे की अपेक्षा न रखकर बिल्कुल स्वतंत्र हुई हो । श्वे० सूत्र पाठका 'यथोक्तनिमिशः षविकल्पः शेपाणां 'ऐसा सूत्र है, उसके 'यथोक्तनिमित्तः पदका श्वं० भाष्यमे 'क्षयोपशमनिमित्त:' अर्थ किया गया है, परन्तु उस पदका वैमा अर्थ हो नहीं सकता । इससे पता चलता है कि यह अर्थ दिगम्बरीय सूत्र या उस के भाष्यों से लिया गया है। इस प्रकार सूत्र और भाष्य के जुद जुदे पाठ होनेसे दोनोंके एक कर्तृत्वका भी विघटन हा जाता है। श्वं०भाष्य और सूत्रकं एककर्ता नहीं है, इस विषयके बहुत से पुष्ट प्रमाण पिछले 'ईन् प्रवचन और तस्वार्थधगम' नामक प्रकरण नं० २ में दिये जा चुके हैं, जिनसे पाठकगण अच्छी तरह जान सकते हैं कि श्वे० सम्प्रदाय में सूत्र और भाष्यकी एकताका जो ज्ञान है वह कितना भ्रमात्मक है। मेरी समझ में ऐसे आन्तरकि विषयोंका ज्ञान केवल चर्म चक्षुके द्वारा देखे गये शाब्दिक कलेबरसे नहीं हो सकता; किंतु उसके लिये अंतरंग प्रकरण की संबद्धता असंबद्धताका विवेक भी आवश्यक है, जो गहरे अध्ययन तथा मननसे सम्बन्ध रखता है । यहाँ
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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