SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४६ अनेकान्त राजवार्तिक के 'पंचत्व' 'अवस्थितानि' आदि शब्द भाष्य में देखकर बिना विचारे कह देना कि 'ये शब्द भाष्य के हैं अतः गजवार्तिक के सन्मुख भाष्य था ' केवल चर्मचक्षुकी दृष्टि के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? यदि यहाँपर श्रान्तरंगिक दृष्टिसे विचार किया गया होता तो स्पष्ट मालूम पड़ जाता कि इन का संबंध मुख्यतया सौत्रीय रचनासे अथवा राजवार्तिक भाष्यसे है; क्योंकि शंका के समाधानका हेतु, इस स्थलमें, दिगम्बरीय सूत्रपाठ है - श्वेताम्बरीय भाष्यको श्रई अंश नहीं है । और इसलिये प्रो० सा० का यह लिखना कि "इम ( 'वृति' शब्द ) का वाच्य कोई ग्रन्थविशेष है और वह ग्रंथ उमास्वातिकृत ( प्रस्तुत श्वेताम्बर ) भाष्य है ।" किसी तरह भी ठीक नहीं बैठता । आगे चलकर प्रो० सा० जोरकं साथ दूसरोंको यह मानने की प्रेरणा करते हुए कि 'अकलंककी उक्त शंका श्वे० भाष्यकां लेकर है' उस शंका समाधान सम्बन्ध मे लिखते हैं [वर्ष ४ अपनी नाका शास्त्र स्वीकार करने वाला क्यों कर होजाता है, यह कुछ भी बनलाया नहीं गया । तीसरे, श्वे० भाष्य-सम्बन्धी शंकाका समाधान श्वे० भाष्य अथवा श्वे० सूत्र पाठस न करके दिगम्बर सूत्र पाठ करनेमे कौनसा औचित्य है, इसे जरा भी प्रकट नहीं किया गया | चौथे, यह दर्शाया नहीं गया कि अकलंकन कब, कहाँ पर तत्त्वार्थसूत्र और श्वेताम्बर भाग्य की एक कर्तृताको स्वीकार किया है। ऐसी हालत मे प्रा० सा० का उक्त सारा कथन प्रलापमात्र अथवा बच्चोंको बहकाने जैसा मालूम होता है और स्पष्टतया कदाग्रहका लिये हुए जान पड़ता है । समाधान वाक्य में दिगम्बर सूत्रका प्रयोग होनेसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि शंकाका सम्बन्ध दिगम्बर सूत्ररचनाएं हैश्वेताम्बर से नही । श्वेताम्बर से होता तो समाधानमें 'कालश्चेत्येके' सूत्र उपन्यस्त किया जाता, जिससे श्वे० भाष्यविषयक शंकाका समाधान बन सकता । और इसलिये 'वृत्ति' शब्दका वाच्य वहाँ श्वेताम्बर भाष्य न होकर दिगम्बर सूत्रग्धना है, जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है 1 "अब यदि इस शंकाका समाधान अकलंक स्वयं भाष्यगन 'कालश्चेत्येके' सूत्रसे करते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि कलंक, दिगम्बराम्नायके प्रतिकूल होने पर भी, भाष्यको सूत्ररूपसे स्वीकार कर लेते हैं तथा सर्वार्थसिद्धिगत दिगम्बरीय सूत्र 'कालश्च' ही है, जिसको सामने रखकर वे अपना वार्तिक लिख रहे हैं । ऐसी हालत मे 'कालश्च' सूत्र ही प्रमाणरूपसं देकर शंकाका परिहार किया जाना उचित था, जो अकलंक ने किया है ।" प्रो० सा० की इस विचित्र लिखावटको देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है ! प्रथम तो “भाष्य को सूत्र रूपसे स्वीकार कर लेते हैं" इस कथनमें आपके वचनकी जो विशृंखलता है वह भाष्य और सूत्रके जुदा जुदा होनेसे ही स्वतः प्रतीति में आ जाती है । दूसरे, किसी आम्नाय का कोई व्यक्ति अपने शास्त्र के सम्बन्धमे यदि शंका करे और उसका समाधान उसी के शास्त्रवाक्यसे कर दिया जाय तो इससे समाधान करने वाला उस शास्त्रका मानने वाला अथवा उसे एक जगह प्रो० सा० ने लिखा है कि- “ प्रस्तुत प्रकरण में खंडन-मंडनका कोई भी विषय नहीं है ।" यह लिखना आपका प्रत्यक्ष विरुद्ध है; क्योंकि 'श्रवस्थितानि' पदका 'धर्मादीनि षडपि द्रव्यारिण' भाष्य किया गया है। उसका खंडन वादीके द्वारा किया गया और फिर उसका समाधान 'काला' सूत्र के आधार पर किया गया। यह सब खंडन-मंडनका विषय नहीं हुआ तो और क्या हुआ ? इसका असली मतलब खंडन-मंडन ही है; क्योंकि शंका और समाधान तथा खंडन और मंडनमें अपने अपने पक्षकी सिद्धिकं निमत्त हेतुश्रोंको उपन्यस्त करना पड़ता । अतः शंका-समाधान रूप से खंडन-मंडनका विषय है ही । इतनी मोटी बात भी यदि समझमें नहीं आती तो फिर किस बूते पर विचारका आयोजन किया जाता है ? एक स्थान पर प्रो० सा० ने यह प्रश्न किया है कि "अक्लकने नित्यावस्थितान्यरूपाणि सूत्रमें ही द्रव्यपंचत्व-विषयक शंका क्यों उठाई ?” इत्यादि ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy