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________________ किरण ८] सयु० स० पर लिखे गये उतरलेखकी निःसारता - " n16 | परन्त इसका समाधान सिर्फ इतना ही है कि अन्यत्र शंका समान मान्यताके होने पर एक स्थल पर उस शंकाका उठानेका स्थान उपयुक्त न होनस दूसरी जगह शंका बन सकना और दूसरे पर न बन सकना बतलाना नहीं उठाई। यहां 'अवस्थितानि' सूत्रकं प्रकरण में कथनके पूर्वापविगंधको सूचित करता है। इसके द्रव्योंके छह पनका कथन आया और ऊपर सूत्रानु सिवाय, मैंने 'मयुक्तिक सम्मान' नामकं अपने पूर्व पूर्वी रचनामे तथा राजवार्तिक भाष्यमें द्रव्योंके पंचत्व लंम्ब (अनकान्त ५०८५.९०) में दिगम्बरमूत्र पाठके का कथन पाया; अनः यहाँ शंकाका अवकाश हानसे सम्बन्धमें इम शंका-समाधानकं बन सकनका जो शंका उठाई गई, दूमी जगह वैमी शंकाका स्थान उप- स्पष्टीकरण किया था तथा औचित्य बतलाया था उम युक न होनस नहीं उठाई गई । 'जीवाश्च' आदि सूत्र पर भी आपने कोई ध्यान नहीं दिया। और न यही वैसी शंका उपयुक्त स्थान ना तब कहे जाने जब मांचा कि एक प्रन्थकार जो अपने मत या आम्नाय उनमें वैसा प्रमंग पाता । वैसे प्रसंगकं लानेका कार्य को लेकर प्रन्थकी रचना कर रहा है वह दूमरे मत मेरे-आपके हाथ की बान तो है नहीं, प्रन्थ ताजिम अथवा पाम्न य वालोंकी खुद उन्हींके मत, प्राम्नाय जगह जैसा उपयुक्त अँचा वहाँ वैमा पकरण ले पाए। अथवा प्रन्थ पर की गई शंकाकी मंगति बिठलाता अन्तमें प्रा० मा० लिम्बने हैं कि-"पूर्व लग्वमें हुश्रा समाधान अपनं प्रथम क्यों करंगा ?-उसे बताया जा चुका है कि द्रव्य पंचत्वकी शं। दिगम्बरी उमकी क्या जरूरत पड़ी है? एमी हालत में आपका के यहाँ इमलिये नहीं बन सकती कि उनके यहाँ ता उक्त लिम्बना कुछ भी मूल्य नहीं रखता। निश्चित रूपसे छः द्रव्य मान गये हैं, जबकि श्व० उत्तरकालीन प्रन्थोंम भी 'पंचद्रव्य' और 'षद्रव्य' ऊपरके इस सब विवेचनस स्पष्ट है कि गजकी आगमगत दोनों मान्यताएँ मौज वार्निकका उक्त शंका-समाधान सत्ररचना तथा गजयह लिखने हुए वे इस बातको भुला देते हैं कि उन्होंने वार्निकके भाप्यम सम्बन्ध रखता है, उसमे श्वे० स्वयं यह स्वीकार किया है कि माम्वाति कालसहित भाष्यका जा स्वप्न देखा जाता है, वह प्रन्थको सम्बन छहों द्रव्य मानते हैं और अपने पिछले लेखाङ्कनं०३ रूपम लगानकी अजानकारीही प्रकट करता है, और में 'मर्व षटकं षडद्रव्यावरोधात' इस भाष्य-वाक्यके इलिये इस तीसरे प्रकरणमें प्रोफे० साहबन उत्तरका द्वारा उस मान्यताकी पुष्टि भी की है, तब वह पंचत्व जो प्रयत्न किया है उसमें भी कुछ दम और सार की शंका भाष्यके ऊपर भी कैसे बन सकती है ? नहीं है। (क्रमश:) संशोधन ४.२ २ ४ कुरूप गत किरणमें 'महाकवि पुष्पदन्त' नामका लेख कुछ १३ । २२ मणि मणे अशुद्ध छप गया है। मात्रादिकके टूट जानेसे जो साधारण , , २३ कावयादियसह कापयदिपाई अशुद्धियां हुई हैं, उन्हें छोड़कर शेष कुछ महत्वकी अशु- , २६,२७ सुहवड द्वियोंका संशोधन नीचे दिया जाता है। पाठकगण इसके १४ । ३ भरता भरहा अनुसार अपनी अपनी प्रतिमें सुधार कर लेवें : ४१५ २ २३ सबसे पृ० कालम पंक्रि प्रशुद्ध ४००१८ रोहिणीखेत रोहनखेड १६ २ २० गुणैर्भासिते गुर सिसो ४०६ २ । काम्य ४१६ २ २५ श्यामः प्रधानः श्यामप्रधानः ४१. १८ करिसवति करिसरवाडि ৪৭। ২ নৰনাৰা নবাগ ४." २: सरक. सरस्वती ४२० २ ३२ सहासता सहायता -प्रकाशक सुब्बा सबसे अधिक
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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