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विषयकी शंकाका समाधान किसी राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि या श्वेताम्बर भाष्य प्रादिकं वाक्योंस न करके खास उमास्वामी महाराजके सूत्र कर रहे हैं। और इसलिये प्रो० सा० का यह लिखना कि "वृति' का अथ 'सूत्ररचना' किसी भी हालत में नहीं हो सकता" निरर्थक जान पड़ता है। हाँ, वह शंका यदि किमी वृत्तिविशेष के विषयकी होती तो अकलंक उस वृत्त केही अंशमं उसका समाधान करते । यहाँ शंकाका विषय मौलिक रचना सम्बन्ध रखता है अतः उस का समाधान मौलिक रचनापरसं दिया गया है, जिस पर कोई आपत्ति नहीं की जासकती । अतः राज
* यहॉपर में इतना और प्रकट कर देना चाहता हूँ कि स्वयं कलंक देवने राजवार्तिक में श्रन्यत्र भी 'वृत्ति' शब्दका प्रयोग 'सूत्ररचना' के अर्थम किया है; जैसा कि 'भवप्रत्ययोऽधिर्देवनारकाणा' इम सूत्रसम्बंधी छठे वानिकके निम्न भाष्यसे साफ़ प्रकट है, जिसमें 'देव' शब्दको अल्पा क्षर और अभ्यर्हित होने से सूत्ररचना में पूर्व प्रयोग के योग्य बतलाया है, और इसलिये यहाँ प्रयुक्त हुए 'वृत्ती' पदका अर्थ' सूत्ररचनाया' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो
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सकता :
"" श्रागमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोगद्वारेणाऽऽदेश वचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता, ततो नारकशब्दस्य पूर्वीनपातेन भावतव्यमिति । तन्न कि कारणं उभयलक्षणप्राप्तत्वाद्देवशब्दस्य । देवशब्दो हि श्रल्पाजभ्यहितश्चति वृत्तां पूर्वप्रयोगाः । "
यहाँ पर भी यह सब कथन दिगम्बरसूत्रपाठ से सम्बन्ध रखता है- श्वेताम्बर सूत्रपाठ और उसके भाष्यसे नही । क्योकि श्वेताम्बर सूत्रपाठका रूप "तत्र भवप्रत्ययो नारक देवानाम्" है, जिसमे 'नारक' शब्द पहले इसे 'देव' शब्द के पूर्व पड़ा हुआ है, और इसलिये वहाँ वह शंका ही उत्पन्न नहीं होती जो "श्रागमे हि" आदि वाक्योंके द्वारा उठाई गई है और जिसमें यह बतलाकर, कि श्रागम में जीवस्थानादिके आदेशवचनमे - नारकोकी ही पहले सत् श्रादि रूपसे प्ररूपणा की गई है, कहा गया है कि तब सूत्र
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वर्ष ४
वार्तिक में 'वृत्ति' शब्द श्राजानमं प्रा० सा० ने अपनी मान्यता के अनुसार जो यह लिख माग है कि "राजवार्निक में 'वृत्तौ उक्त' कहकर जो वाक्य उद्धृत किये हैं वे वाक्य न किमी सूत्ररचनाके हैं और न अनुपलब्ध शिवकोटिकृत वृत्तिके, बल्कि उक्त वाक्य श्वताम्बरीय तत्व थे भाष्य के हैं" उसमें कुछ भी मार नहीं है। उसका निरसन सूत्ररचना-विषयक ऊप के वक्तव्य भले प्रकार होजाता है। रही हाल में अनुप लब्ध शिवकोटि कृति की बात उसका सम्बन्ध शिला लेखसे है, उसकी जब उपलब्धि होगी तब जैसा कुछ उसमें होगा उस समय वैसा निर्णय भी हो जायगा । फिलहालकी उपलब्धिमे तो सूत्ररचना-विषयक संबंध ही अधिक संगत और विद्वद् प्रा जान पड़ता है । यह नहीं हो सकता कि अकलंक देव शंका तो उठावें श्वेताम्बर भाध्यके आधार पर और उसका समाधान करने बैठें दिगम्बर सूत्र के बल पर ! ऐसी असंगतता और असम्बद्धताकी कल्पना राजवार्तिक-जैसी प्रौढ उचनाकं विषय में नहीं की जा सकती। दूसरी बात
में ' नारक ' शब्दका ' देव ' शब्द से पहले प्रयोग होना चाहिये । ऐसी दालन में यहाँ 'वृत्ति' का अर्थ 'श्वेताम्बर भाष्य' किसी सूरत में भी नहीं हो सकता। क्या प्रोफेसर जगदीशचंद्रजी, जिन्होंने अपने समीक्षा लेख (अने० वर्ष ३ पृ० ६२६) मे ऐसा दावा किया था कि राजवार्तिकमे प्रयुक्त हुए भाष्य, वृत्ति, श्रहेत्प्रवचन और ईत्प्रवचनहृदय इन सब शब्दों का लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत श्वे० भाष्य है, यह बतलाने की कृपा करेंगे कि यहाँ प्रयुक्त हुआ 'वृत्तौ' पद, जो विवादस्थ 'वृत्तौ' पदके समान है, उसका लक्ष्यभूत अथवा वाक्य श्वेताम्बर भाष्य कैसे हो सकता है ? और यदि नहीं हो सकता तो अपने उक्त दावेको सत्यानुसन्धानके नाते वापिस लेनेकी हिम्मत करेंगे। साथ ही, यह स्वीकार करेंगे कि अकलंक देवने स्वयं 'वृत्ति' शब्दको 'सूत्ररचना' के अर्थ में भी प्रयुक्त किया है। -सम्पादक