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________________ किरण] बनारसी-नाममाला ४८५ - 'दरस विलोकनि देखनौं, अवलोकनि दृगचाल । मार्फत पं० रूपचन्दजी गार्गायके प्राप्त हुई, जो संवत् 185 लखन दृष्टि निरखनि जुवनि, चितवनि चाहनि भाल ||४७॥ आश्विन शुक्ल द्वितीया शनिवारकी लिखी हुई है और जिसे ग्यान बोध अवगम मनन, जगतभान जगजान। चौधरी दीनदयालने जलपथनगर (पानीपत) में लिखा है। 3संजम चारित प्राचरन, चरन वृत्त थिरवान ||४|| इस प्रतिका पहला और अन्तके ४ पत्र दूसरी कलमसे लिखे 'सम्यक सत्य अमोघ सत, निसंदेह निरधार | हुए हैं और वे शेष पत्रों की अपेक्षा अधिक अशुद्ध है। इस ठीक जथारथ उचित तथ "मिथ्या श्रादि अकार ||४Ell प्रतिसे भी संशोधनादिक कार्यमें कितनी सहायता मिली इस 'नाममाला' कोषमें कोई ३५० विषयोंके नामांका है।यो प्रतियाँ दोनों ही थोडी-बहन प्रशद और उनमें सुन्दर मंकलन पाया जाता है जिससे हिन्दीभाषाके प्रेमी साधारण-मा पाठ-भेद भी पाया जाता है जैसे देहलीकी यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं। कितने ही इस छोटीसी प्रतिमें तनय, तनया पाठ है तो पानीपतकी प्रतिमें तनुज, पुस्तकको सहज ही में कण्ठ भी कर सकते हैं । नामोमें तनुजा पाठ पाये जाते हैं-'स' 'श' जैसे अक्षरोंके प्रयोगमें हिन्दी (भाषा), प्राकृत और संस्कृत ऐसे तीन भाषाश्रोंके भी कहीं कहीं अन्तर देखा जाता है और 'ख' के स्थानपर शब्दांका समावेश है; बाकी जानि, बखानि, सुजान, तह '' का प्रयोग तो दोनों प्रतियोमें बहुलतासे उपलब्ध होता इत्यादि शब्द पद्योंमें गदपूर्तिके लिये प्रयुक्त हुए हैं, यह है, जो प्राय: लेखकोंकी लेखन-शैलीका ही परिणाम जान बात कविने स्वयं तीसरे दोहे में सूचित की है। पड़ता है । अस्तु । इस कोषका संशोधनादि कार्य मुख्यतया एक ही उक्त दोनों ग्रंथप्रतियोंमें 'दोहा-वर्थित' विषयों प्रनिपरसे हुआ है, जो सेठका .चा देहलीके जैनमंदिरकी का निर्देश दोहेके ऊपर गद्यमें दिया हुआ है, परन्तु पुस्तकाकार १५ पत्रात्मक प्रति है, श्रावण शु० सप्तमी संवत् एक एक दोहेमें कई कई विषयोंका समावेश होनेसे कभी १६३३ की 'लिखी हुई है, पं० बाकेरायकी मार्फत कभी साधारण पाठकको यह मालूम करना कठिन हो जाता रामलाल श्रावक दिल्ली दर्वाजेके रहने वालेसे लिखाई है कि कौन नाम किस विषयकी कोटिमें आता है। अतः यहाँ गई है और उसपर मंदिरको, जिसके लिये लिखाई गई है, दोहेके ऊपर विषयोका निर्देश न करके दोहेके जिस भागसे 'इंद्राजजीका' मंदिर लिखा है। बादको एक दसरी शास्त्राकार किसी विषयके नामोंका प्रारंभ है वहाँ पर क्रमिक अंक १२ पत्रात्मक प्रति पानीपतके छोटे मंदिरके शास्त्रभंडारसे लगा कर फुटनोट में उस विषयका निर्देश कर दिया गया है। १ दर्शनके नाम, २ ज्ञानके नाम, ३ चारित्रके नाम, इससे विषय और उसके नामोंका सहज हीमें बोध हो सकेगा। 'सत्यक नामोंकी श्रादि में 'अ'कार वीरसेवामन्दिर, सरसावा ? जोड देनेसे मिथ्याके नाम हो जाते हैं। परमानन्द जैन शासी ता० १५-१०-१६४१ परमानन्द जनशाना
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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