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________________ ३२० अनेकान्त 1 ही नहीं है । और इस लिये विशुद्धिका आशय यहाँ आर्त-रौद्रध्यान से रहित शुभ परिस्तिका है वह परिणति धध्यान शुक्लध्यानस्वभावको लिये हुए होती है। ऐसी परिणति होनेपर ही आत्मा स्वात्मामें—स्वस्वरूपमे—स्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने होशोंम क्यों न हो । इमीसे अकलंकदेवने अपनी व्याख्यामें, इस मक्लेशाभावरूप विशुद्धिको “आत्मनः स्वात्मन्यवस्थानम्" रूपसे उलिfar fया है। और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्यप्रमाधिका विशुद्धि श्रात्मा के विकास में सहायक होती है, जब कि संकेश - परिणति में आत्मा विकास नहीं बन सकता- वह पापप्रसा frer होने से आत्मा अधःपतनकका कारण बनती है। इसीलिये पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है। 1 [ वर्ष ४ की व्यवस्थिति है । 'संक्लेशके कारण कार्य रवभावऊपर बतलाए जा चुके हैं; विशुद्धि के कारण सम्यग्दर्शनादिक हैं, धर्म्यध्यान शुक्लध्यान उसके स्वभाव हैं और विशुद्धिपरिणाम उसका कार्य है । ऐसी हालत में स्वपरदुःखकी हेतुभून कायादि क्रियाएँ यदि संक्लेश- कारण -कार्य-स्वभावको लिए हुए होती हैं तो वे संक्लेशाङ्गत्वकं कारण, विषभक्षणादिरूपकाय. दि क्रियाओं की तरह, प्राणियोंको अशुभ फलदायक पुद्गलोकं सम्बन्धका कारण बनती हैं; और यदि विशुद्धि-कारण-चार्य स्वभावको लिए हुए होती हैं तो विशुद्वयङ्गत्व के कारण, पथ्य आहारादिरूप कायादि क्रियाश्रोंकी तरह, प्राणियों के शुभफलदायक पुद्गलोकं सम्बंधका कारण होती हैं। जी शुभफलदायक पुद्गल हैं वे पुण्यकर्म हैं. जो अशुभ फलदायक पुद्गल है वे पापकर्म हैं, और इन पुण्यपाप कर्मो के अनेक भेद हैं। इस प्रकार संक्षेपसे इस कारिकाम संपूर्ण शुभाशुभरूप पुण्य-पाप कर्मों के सूत्र बन्ध का कारण सूचित किया है। इससे पुण्य-पापकी व्यवस्था बतलाने के लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। विशुद्धि के कारण, विशुद्धिके कार्य और विशुद्धि के स्वभाव को शुद्धचंग' कहते हैं । इसी तरह संक्लेशके कारण, संक्लेशकं कार्य तथा संक्लेशके स्वभावको 'संक्केशाङ्ग' कहते है । स्व-पर- सुख दुःख यदि विशुद्धथंग-संक्लेशाङ्गको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-पापरूप शुभ अशुभ बन्धका कारण होना है. अन्यथा नही । तत्रार्थसूत्र में, “मध्यादर्शना विरतिप्रमोद+पाययोगा बन्धहेतव:' इस सूत्र के द्वारा, मिथ्यादर्शन, अविरनि, प्रमाद, कषाय-यांगरूप से बन्ध के जिन कारणों का निर्देश किया है व संक्लेशपरिणाम ही हैं; क्योंकि आर्त-गैद्रध्यानरूप परिणामोंके कारण होनेसे 'संक्लेशाङ्ग' में शामिल हैं, जैसे कि हिंसादिक्रिया संक्लेशकार्य होनस संक्लेशाङ्ग में गर्भित है । अतः स्वामी समंतभद्र के इस कथन से मुक्त सूत्रका कोई विरोध नहीं है । इसी तरह 'कायवाङ्मनः कर्मयोगः', 'स आसवः,' 'शुभः पुण्यम्याशुभः पापस्य' इन तीन सूत्रोंके द्वारा शुभकायादि-व्यापारका पुण्यासूत्र का और अशुभकायादि व्यापारको पापामुत्रका जो हेतु प्रतिपादित किया है वह कथन भी इसके विरुद्ध नहीं पड़ता; क्योंकि कायादियंग के भी विशुद्धि और संकेश के कारणकार्यत्व के द्वारा विशुद्धित्व-संक्लेशत्व सारांश इस सच कथनका इतना ही है किसुख और दुःख दोनों ही, चाहे स्वस्थ हो या परस्थअपनेको हो या दूसरेको कथंचित् पुण्यरूप सबन्धके कारण हैं, विशुद्धि के श्रंग होनेसे, कथंचित् पापरूप आसव बन्धकं कारण हैं, संक्लेशके अंग होन; कथंचित् पुण्यपाप उभयरूप श्रसव बन्धके कारण हैं, क्रमार्पित विशुद्धि-संक्लेशके अंग होन; कथंचित् श्रवक्तव्यरूप हैं, सहार्पित विशुद्धिसंक्लेशक अंग होनेसे । और विशुद्धि-संक्लेशका अंग न होने पर दोनों ही बन्धके कारण नहीं है । इस प्रकार नय- विवक्षाको लिए हुए अनेकान्तमार्ग से ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती हैं-सर्वथा एकान्तपक्षका आश्रय लेनेसे नहीं । एकान्तपक्ष मदोष है, जैसाकि ऊपर बतलाया जाचुका है, और इसलिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नहीं हो सकता । ता० ११ । ६ । १९४१
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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