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युवराज
[ लेखक - श्री 'भगवत्' जैन ]
सनाको इसलिए और भी बुरा कहा है कि वासना वह विषयी कं प्राप्त ज्ञानको भी खो देती है। वह सौन्दर्य-मदिरा पीकर पागल हो जाता है ! भूल जाता है कि मैं किस अनर्थकी ओर दौड़ रहा और उसी उन्मन-दशामे वह ऐसा भी कर बैठता है कि फिर पीछे जिन्दगी भर उसके लिए रोये. पछताए, मुँह दिखाने भर के लिए जगह न पाए ।
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यज्ञदत्त भी ऐसे ही भयानक अनर्थ की ओर या जा रहा था, कि उसे दिगम्बर साधु महाराज अयनने रोक दिया। उनका जीवन ही परोपकार-मय होता है ।
वासना-विजयी महाराज अयन - शहर मे दूर, जन-शून्य स्थानमें विराजे हुए, भ्यानस्थ होनेके लिए तैयार हो रहे थे कि देखा - क्रांचपुरका युवराज यज्ञदत्त - बिल्कुल अकेला - लम्बे-लम्बे कदम रखता हुआ बढ़ा जा रहा है- उधर ! जहाँ ग़रीबी के मनाये हुए, पद-दलित मानवाने एक झोपड़ी डालकर, मरी हुई जिन्दगीके शेष दिन बिताना नय किया है ।
अन्धेरा हो चला है । दिवाकरको अम्नाचलकी शरण लिए काफी वक्त बीत चुका । स्वभावतः निशा हारको बुग साबित करनेवाले परिन्दे अपनी-अपनी नींद और अपने-अपने स्नेहियों के साथ घोंसलोंमे जा छुपे हैं !
दिगम्बर साधु निशा मौनके हामी होते हैं । प्राण जाएँ, लेकिन गतका बोलना कैसा ? प्राणांकी ममता उन्हें छोड़ देनी पड़ती है, क्योंकि यह सबसे वज्रन
दार लोभ होता है। दुनियाके निन्यानवें फ़ीसदी पाप इसीमे छिपकर बैठे हैं। पर, जब कभी किसी पर करुणा आजाती है, उसके उद्धार उपकार की भावना अधिक प्रेरणा देने लगती है या धर्म उद्धारका खयाल पैदा हो जाता है, तब वैसे मौका पर गनके वक्त बाल भी लेते है । यह सही है कि जब वे देखते हैं कि 'मेरे बालन से ही कुछ उपकार हो सकता है, और मैं अवश्य ही किसीके हिनमें शामिल हो सकता हूँ' नभी बोलते है। और बोलकर या भरपूर उपकार करके भी इसमें प्रायश्चित लेते है । इस लिये कि यह दिगम्बर साधु-नियम के विरुद्ध है। उन्हें परोपकारके पहले अपने उपकारकी - श्रात्म सुधार कीभी ज़िम्मेदारी तो सँभालनी ही होती है !
उमीदों की, झोंपड़ी में रहती है-मित्रत्रती । जां कामियो, मनचलो की नजर मे रूपवती है ! पर, वह है जो अपने लिए समझती है- 'मुझ-मी दुखिया दुनिया के पर्दे पर नहीं !'
यतवश है युवराज ! नव-यौवन, रमीला मन और साधन-सम्पन्न ! घूमते-फिरते उसने देख लिया कही, मित्रवती को ! ललचा गया मन ! कामीका क्या ? वह तो सिर्फ रूप देखता है! जाति-भेद उसे दीखता नहीं, और अपनी मर्यादा-प्रतिष्ठाका खयाल तो वह भूल ही जाता है !
चिराग जलेके बाद दबे पाँव अरमान और राज्यमदकी हिम्मत के साथ यज्ञदत्त चला, मित्रवती के रूपका आस्वादन करने ! उसकी पवित्रता पर