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टिप्पणम् अज्ञपातमीतेन श्रीमदुबला [स्का] रगणश्रीसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूत रेपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य || १०२ || इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य (?) विरचितं
समाप्तम्
י
अनेकान्त
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ही न्यायकुमुदचंदकी रचना की है। मुद्रित प्रमेयकमलमार्त्तण्डके अंत में "श्री भोजदेवराज्यं श्रीमद्धारानिवासिना परापर परमेष्ठिपदप्रणामोपार्जितामलपुण्यराकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचंद्र पण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयम्वरूपोद्योतिपरीक्षा मुख पदमिदं विवृतमिति ।" यह पुष्पिकालंग्य पाया जाता है। न्यायकुमुदचंद्रकी कुछ प्रतियों में उक्त पुष्पिकालंग्य 'श्री भोजदेवराज्ये' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' पदके साथ जैसाका तैसा उपलब्ध है। अतः इस स्पष्ट लेख से प्रभाचंद्रका समय जयसिंहदेवके राज्यके कुछ वर्षों तक, अन्ततः सन् १०६५ तक माना जा सकता है। और यदि प्रभाचंद्रने ८५ वर्षकी आयु पाई हो तो उनकी पूर्वावधि मन् ९०० मानी जानी चाहिए । श्रीमान मुख्तारसा० तथा पं० कैलाशचंद्रजी प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्र के अंत में पाए जान वाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्य और 'श्रीजयसिंहदेव राज्ये ' आदि प्रशस्तिलेग्योकी स्वयं प्रभाचंद्रकृत नहीं मानते । मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यका टीकाटिप्पणकार द्वितीय प्रभाचंद्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचंद्र जी इसे पीछे किसी व्यक्तिर्क करतूत बताते है । पर प्रशस्तिवाक्यको प्रभाचंद्रकृत नहीं माननेमे दानोंके श्राधार जुदे जुदे हैं। मुख्तारसाहब प्रभाचंद्रको जिनसंनके पहिलेका विद्वान् मानते हैं, इसलिए 'भोजदेव - राज्य' आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचंद्रका नहीं मानते । पं० कैलाशचंद्रजी प्रभाचंद्रका ईसाकी १० वीं और ११वीं शताब्दीका विद्वान् मानकर भी महापुराण के टिप्पणकार श्री चंद्रके टिप्पणके अंतिमवाक्यको भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका श्रं तमवाक्य समझ
प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेव के राज्यमें लिखा गया है । इसकी प्रशस्तिकं श्लोक रत्नकरण्ड श्रावका चरक प्रस्तावना से न्यायकुमुदचंद्र प्रथम भागकी प्रस्तावना ( पृ० १२०) में उद्धत किये गये हैं। श्लोकों के अनन्तर - " श्री जयसिंह देवराज्ये श्रीमद्भागनिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुग्यनिगकृताग्विल - मलकलङ्केन श्रीप्रभाचंद्रपण्डितेन महापुराणटिप्पण के शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति ।" यह पुष्पि का लेख है । इस तरह महापुराण पर दोनों आचार्यो के पृथक् पृथक् टिप्पण हैं। इसका खुलासा प्रेमीजीके लेख' से स्पष्ट हो ही जाता है । पर टिप्पणलेखकने श्री चंद्रकृत टिप्पण के 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्ति लेखकं अंत में भ्रमवश इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचंद्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है । इमी लिए डी० पी० एल० वैद्य, प्रो० हीरालालजी तथा पं० कैलाशचंदजीनं भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका रचना काल संवत् १०८० समझ लिया है। अतः इस भ्रांत आधारसे प्रभाचंद्रकं समयकी उत्तरावधि सन् १०२० नहीं ठहराई जा सकती। अब हम प्रभाचंद्रके समयकी निश्चित अवधिके साधक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं
१- प्रभाचंद्रने पहिले प्रमेयकमलमार्त्तण्ड बनाकर
२ देखो, पं० नाथूरामनी प्रेमी लिखित 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख, श्रनेकान्त वर्ष ४ किरण १ तथा महापुराण की प्रस्तावना पृ० Xiv |
२ रत्नकरण्ड प्रस्तवना पृ० ५६ ६० ।
३ न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० १२२ ।