SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 634
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य जिनसेन और उनका हरिवश ( ० - श्री पं० नाथूराम प्रेमी ) -100 ग्रन्थ- परिचय दि "गंबर सम्प्रदाय के संस्कृत कथा-साहित्य में हरिवंशचरितया इरिवंशपुराण एक प्रसिद्ध और प्राचीन ग्रन्थ है । उपलब्ध कथान्प्रन्थोंमे समय की - दृष्टसे यह तीसरा ग्रन्थ है । इसके पहलेका एक पद्मचरित है जिसके कर्त्ता वगाना है और दूसरा वगगचारत है जिसके कर्त्ता जटा-मिनांद है और इन दोनोंका स्पष्ट उल्लेख इरिवंशके प्रथम सर्गम किया गया है ।" श्राचार्य वीरमेनके शिष्य जनसनका पार्श्वभ्युदय काव्य भी हरिवंश के पहले बन चुका था. क्योंकि उसका भी उल्लेख हरिवंश में किया गया है. इस लिए याद उसको भी कथा-ग्रन्थ माना जाय, तो फिर दारवंशको चौथा ग्रन्थ मानना चाहिए। महामंत्री सुलोचना कथाका और कुछ अन्य ग्रन्थीका भी दरिवंश में जिक्र किया गया है परन्तु वे अभी तक अनुपलब्ध है । हरिवंशका ग्रन्थ-परिमाण बारह हजार है उसमें ६६ गर्ग हैं। अधिकाश मर्ग श्रनुष्टुप छन्दो में हैं । कुछ में तविलम्बित, चमन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित श्रादि छन्दोका भी उपयोग किया गया है। Ratna fire भगवान नेमिनाथ और वे जिम वंशम उत्पन्न हुए थे उस हरिवंशके महापस्पोका चाग्न लिखना ही इसका उद्देश्य है; परन्तु गौण रूप से जैसा कि छाट सर्ग (श्लोक ३७-३८) में कहा गया है चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव बलभद्र और नत्र प्रांतनारायण, इस तरह त्रेमठ शलाका पुरुयोंका और मैकड़ों अवान्तर राजाश्री और विद्याers aftनांका कीर्तन भी इसमें किया गया है। इसके मित्राय चौथमे मानवें मनक ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोकोंका वर्णन तथा अजीवाटिक द्रव्योंका स्वरूप भी बतलाया गया है। जगह जगह जैनसिद्धान्तोंका निरूपण तो है ही। १ देखो श्लोक नं० ३४-३५ | २ देखी लोक नं० ४० । ३ देखो श्लोक नं० ३३ । हरिवंशकी रचना ममय तक भगवजिनसेनका आदिपुराण नहीं बना था और गुणभद्रका उत्तरपुराण तो हरिवंश मे ११५ वर्ष बाद निर्मित हुआ है, इसलिए यह ग्रन्थ उन के अनुकरणपर या उनके आधारपर तो लिखा हुआ हो नहीं सकता, रन्तु ऐसा मालूम होता है कि भगवजिनसेन श्रौर गुणभद्र के ममान इनके समक्ष भी कविपस्मेश्वर या करिमेक 'वागर्थसंग्रह' पुनव्य रहा होगा'। भले ही वह संक्षिप्त हो और उसमें इतना विस्तार न हो । उत्तरपुरा में हरिवंशकी जो कथा है, वह यद्यपि संचित है परन्तु इस ग्रन्थकी कथासे ही मिलती जुलती है, इसलिए संभावना यही है कि इन दोनोंका मूल स्रोत 'वागर्थसंग्रह ' होगा । ग्रंथकर्त्ता और पुनाट संघ इस ग्रन्थके कर्ता जिनसेन पुनाट संघकं श्राचार्य ये और वे स्पष्ट ही श्रादिपुराणादिके कर्ता भगवज्जिन सेन से भिन्न हैं । इनके गुरुका नाम कीर्तिपेण और दादा गुरुका नाम जिनसेन था, जब कि भगवजिनसेन के गुरु वीरसेन और दादा गुरु श्रानन्दि थे । नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है। संस्कृत साहित्य में इसके अनेक उल्लेख मिलते हैं। हांयेने अपने कथाकांश में लिम्बा है कि भद्रबाहु स्वाभीकी श्राशानुसार उनका माग संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथके पुबाट देशमें गया । दक्षिणापथका यह पुनाट कर्नाटक ही है। कन्नड़ माहित्य में भी पुनाट राज्यके उल्लेख १. हमकी चर्चा 'पद्मचरिन और पउमचरिय' शीर्षक लेख में की जा चुकी है जो 'भारती विद्या' में प्रकाशित हो रहा है। २ स्व० डा० पाठक, टी० एस० कुप्पूस्वामी शास्त्री आदि विद्वानोंने पहले समय साम्यके कारण दोनोंकी एक ही समझ लिया था । ३ श्रनेन सह संघोऽपि समस्त गुरुवाक्यतः । दक्षिणापथ देशस्थ पुनाविषयं ययौ ॥४२ - भद्रबाहुकथा
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy