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________________ १८८ अनेकान्त “विसयविरतो समय इसवरकारणाई भाऊणं । तित्थयरनामकम्मं बंधइ अचिरेण कालेया ||७७||” अर्थ-विषयोंसे विरक्त हुआ साधु छह और दम अर्थात् सोलह कारणोंकी भावना करके अति शीघ्र तीर्थकर नामकर्म का बंध करता 1 अब संख्या विषयक श्वेताम्बर मान्यता दी जाती है "पढमचरमेहि पुडा जिया हेऊ बीम ते इमे । - सप्तग्सियाणा द्वार १० अर्थ - पहले और अन्तिम तीर्थकरोंन तीर्थंकर प्रकृति के जिन बीम कारणोंका चिन्तवन किया वे इस प्रकार हैं । ( बास कारणोंके नाम ऊपर दे आये हैं) प्रवचनसागद्वार द्वार १० मे लिखा है " तथा ऋषभनाथेन वन्मानस्वामिना च पूर्वभवे एताम्यनम्तरोनानि सर्वाण्यपि स्थानाम्यासेवितानि । मध्यमेषु पुनरजितस्वामिप्रभृतिषु द्वाविंशतितीर्थकरेषु केनापि एकं केनापि श्रोणि बावकेनापि सर्वाण्यपि स्थानानि स्पृष्टानि इति ।" [ वर्ष ४ तार्थाधिगमभाष्यकी टीका करते हुए सिद्धसेन गणी लिखते हैं अर्थ — ऋषभनाथ और वर्द्धमान स्वामीने अपने अपने पूर्वभव में ऊपर कहे गये सभी (बीम) कारणों की भावना की । तथा अजितनाथसे लेकर मध्यके बाईम तीर्थकरों किसीने एक किसीने तीन और किसीने चार आदि सभी कारणोंकी भावना की । “विंशतेः कारणानां सूत्रकारेण किंचित् सूत्रे किंचित् भाष्ये किंचित् श्रादिग्रहणात् मिद्धपूजाक्षणलबध्यानभावना ख्यमुपासं उपयुज्य च प्रत्रका व्याख्येयम् ।" अर्थ - तीर्थकर नामकर्म के बंध के बीस कारणों में से सूत्रकारने कुछ सूत्र में कुछ भाष्य में और कुछ आदि ग्रहणमे सिद्धपूजा और चरणलबसमाधिका प्रहण किया है । व्याख्याताको इनका उपयोग करके व्याख्यान करना चाहिये । इससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थकर नामकर्म के बन्धकारणोंकी 'मोलह' यह संख्या दिगम्बर संप्रदायसम्मत है और 'बीस' यह संख्या श्वेताम्बर सम्प्रदायसम्मत है । इस लेख से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं एक तो यह कि तस्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में तीर्थंकरनामकर्मके बंधकारणोंके व ही नाम पाये जाते हैं जा दिगम्बर संप्रदाय के आगम ग्रंथों के अनुकूल पड़ते हैं । तथा दूसरी यह कि कारणोंकी संख्या भी दिगम्बर मान्यता के अनुसार ही दोनों सूत्रप्रन्थोंमें दीगई है। ये दोनों बातें तत्रार्थसूत्र और उसके कर्ताकं निर्णय की दृष्टिसे कम महत्व नहीं रखती हैं। आशा है विद्वान् पाठक इधर ध्यान देंगे । 'अनेकान्त पर चार्यश्री कुन्थुसागर और ब्र० विद्याधरका अभिमत “याप श्रीमान्के भेजे हुए 'अनेकान्त' की ८ किरणें मिल चुकीं, देखने ही मेरेको तथा श्रीपरमपूज्य १०८ आचार्यवर्य कुंथूसागर महाराज श्री को बहुत आनन्द हुआ । जैन पत्रों में जितने मासिक या आठवारिक पेपर निकलते हैं उनमें सच्चा माननीय तथा पढ़ने योग्य पत्र तो 'अनेकान्त' ही है। इसमें अनेक लेख संग्रहणीय रहते हैं तथा इसमें जो लेख आते हैं सो बहुत ही अच्छे होते हैं। 'अनेकान्त'का कागज टाईप तथा आकारादि सुन्दर ही है। जैसा इसका नाम है वैसा ही इसमें अनेक लेखों तथा अनेक विषयोका संग्रह है । सो इस पेपरको प्रत्येक ग्राममें प्रत्येक पाठशाला, प्रत्येक बोर्डिंग तथा प्रत्येक सरस्वती भण्डार और पंचमहाजनोंका मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिये तथा इस पेपरको अवश्य मेम्बर तरीके, मदद तरीके, ग्राहक तरीके या सहायक तरीके मदद करना कराना खास जरूरी है। इस पेपरके पढ़ने से इइपर - सिद्धि तथा परभवसिद्धि - श्रात्म-कल्याण जरूर होगा सो इसमें शंका नहीं । - प्रा० कुन्थुसागर प्र० विद्याधर
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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