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________________ १० श्रतभक्ति किरण ११-१२] तत्वार्थसूत्रका अन्तःपरीक्षण ५५७ नम्बर तत्वार्थसूत्र मा० तत्वार्थाधिगम मा० बंधसामित्तविचय-मा ज्ञाताधर्मयांग मा० अहंभाक्त वही जो तत्त्वार्थसूत्र में परहंतभक्ति अरिहंतवत्सलता आचायभक्ति बहुश्रतभक्ति बहुश्रतभक्ति बहुश्रतवत्सलता पवचनक्ति पवचनभक्ति আৰষাঘবিহুয্যি श्रावश्यकापारहीनता मावश्यनितिचारता मागेपभावना पवचनपभावना प्रवचनप्रभावना प्रवचनवत्सलत्व प्रवचनवस्मलता प्रवचनवत्सलता ऊपर जो काष्ठक दिया है उसके मिलान करनेसे कारणोंकी संख्याविषयक मान्यता यह स्पष्ट हो जाना है कि तत्त्वाथसूत्र, तत्त्वार्थाधिगम ऊपर दोनों मंप्रदायांकी मान्यतानुसार जो बंधके सूत्र और बंधमामित्तविषयके स्थान पायः मिलते कारण बतलाये हैं यद्यपि उन्हींस यह म्पष्ट होजाना जुलते हैं। मिफ एक ही स्थान ऐसा है जो नहीं मिलता है। नत्त्वाथसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है कि बंधकारणाको सालह इस संख्याका दिगम्बर मान्यतासं और बीम इस संख्याका श्वेताम्बर और बंधमामित्त विचयमें प्राचार्यभक्ति नामका मान्यतास सम्बन्ध है। फिर भी संख्या-विषयक कारण पाया जाता है और बंधमामित्वचयमं मान्यतापर स्वतंत्ररूपस प्रकाश डालंदना उपयुक्त क्षणलवपतिबांधनता नामका कारण पाया जाता है। प्रतीत हाता है। श्रीधवलाजी क्षणलवका अर्थ कालविशेष और पतिबोधननाका अर्थसम्यग्दर्शन, मम्यान, व्रत और बंधसामिविषयमं भगवान् भूनबलि शाल आदि गुणोंका उज्ज्वल करना या कलंकका लिखते हैं :पक्षालन करना लिम्बा है। यह क्रिया प्राचायके "atथ इमहिमालमेहि कारणेहि जीवा निश्चयरणाममानिध्य में होता है इालय संभव हे क्षण लवनि- गोदकम्मं बंधान ।" सूत्र .. धवजा पत्र ४६२ बांधनताकं स्थानमें आचार्यभक्ति यह पाठ परिवर्तित किया गया हो। जहां तक देखा जाता है यह बात अर्थ-इन सोलह कारणांस (कारण ऊपरदे युक्तिसंगत पतीत होती है। ऐसी हालनमं यह कहा प्राय) जीव तीर्थकरनामगात्रकमका बंध करते हैं। जा सकता है कि बंधमामित्नविचयकी मान्यता ही उपयुक्त ४० वें सूत्र की टीकामें वीरसन स्वामीन तत्त्वार्थमूत्रमें और कुछ भेदके माथ तत्त्वार्थाधिगम- लिखा हैसूत्र में प्रथित की गई है । शानाधर्मकथा के अनुमार "मोलमति कारयाण मंग्याणिहंसो कमो । पवाटिजा कारण दिये गये हैं उनमसे बहुनही कम एस यणए अवनबिजमाणं नियाकबंधकारणाशिसोलसचेव कारण हैं जिनका तत्त्वाथसूत्र या तत्त्वार्थाधिगमसूत्र होति।" के माथ मिलान बैठना हा । ज्ञाताधर्मकथांगकं २० कारणांमेंस ६ कारण ना ऐसे हैं जो अपरके कोष्टकम । अर्थ-मोलह इम पदके द्वाग बंधके कारणोंका दिग्याई हो नहीं देते हैं। जा दिखाई देते हैं मनसे निर्देश किया है। पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने कुछ तो मिलने हुए हैं और कुछ प्राधे मिलते हए पर तीर्थकर प्रकृतिके बंधके कारण सोलह ही हैं। इसीस पाठक समझ सकते हैं। के बंधकारणोंक विषयमें तस्वार्थसूत्र या तत्त्वार्था- प्राचार्य कुन्दकुन्द नस्वार्थसूत्रके कर्तास पूर्व धिगम सूत्रोंके ऊपर किस मान्यनाकी गहरी छाप है। हुए हैं। वे भी अपने भावप्राभृनमे लिखते हैं
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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