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१६.
भनेकान्त
[वर्ष ४
मिलते हैं। प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता टालेमीने इसका पोनट' नाम विनयधरमें तो कोई फर्क ही नहीं है। शिवदत्त और शिवगुप्त से उल्लेख किया है। इस देशके मुनि-संघका नाम पुन्नाट भी एक हो सकते हैं। 'गुम' का प्राकृतरूप 'गुत्त' भ्रमवश संघ था। संघोंके नाम प्राय: देशों और स्थानोंके ही नामसे दत्त हो सकता है। बीचके दो नाम शंकास्पद है। 'महापड़े हैं। श्रवणबेलगोलके १६४ नं. के शिलालेखमें जो श• तपोभृद्विनयंधरः श्रुनामृषिश्रुनि गुप्तपदादिकां दधत्' इस सं० ६२२ के लगभगका है एक 'कित्तूर' नामके संघका चरणका ठीक अर्थ भी नहीं बैठना', शायद कुछ अशुद्ध उल्लेख है। कित्तूर या कीर्तिपुर पुन्नाटकी पुरानी राजधानी है। श्रुनिगुप्त और ऋपिगुमकी जगह गुमऋषि और गुप्तश्रुति थी जो इस समय मैसूर के 'होग्गडेवकोटे ताल्लुकेमें है। नाम भी शायद हो । यहाँ यह भी खयाल रखना चाहिए कि सो यह कित्तूर संघ या तो पुन्नाट संघका ही नामान्तर होगा अक्मर एक ही मुनिके दो नाम भी होते हैं, जैसे कि लोहार्य और या उसकी एक शाखा ।
का दूमग नाम सुधर्मा भी है। ग्रन्थकत्तोंके समय तककी अविच्छिन्न इममें शिवगुमका ही दूमग नाम अहंद्वलि है और गुरुपरम्परा
ग्रन्थान्तरोंमें शायद इन्हीं अलिको संघोका प्रारंभकर्ता हरिवंशके छयासठवे सर्गमें महावीर भगवानसे लेकर
बतलाया है। अर्थात इनके बाद ही मुनिसंघ जुदा जुदा लोहाचार्य तककी वही प्राचार्य परम्परा दी जो अनाव. नामसि अभिहित होने लगे थे। तार प्रादि अन्य ग्रन्थों में मिलती है-अर्थात् ६२ वर्षमें वीर-निर्वाणकी वर्तमान काल-गणनाके अनुमार वि. तीन केवली (गौतम, सुधर्मा, जम्बू), १०० वर्ष में पांच सं० २१३ तक लोहार्य का अस्तित्व-ममय है और उसके श्रुतकेवली (विष्णु, नन्दिमित्र, अपगजित, गोवर्द्धन, भद्र- बाद श्राचार्य जिनमेनका ममय वि०म० ८४० है, अर्थात् बाह), १८३ वर्ष में ग्यारह दशपूर्व के पाठी (विशाम्ब, प्रोष्ठिल. दोनोंके बीच में यह जी ६२७ वर्षका अन्तर है, जिनसेनने क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल,
उमी बीचके उपयुक्त २६-३० श्राचार्य बतलाये है। यदि गंगदेव, धर्मसेन), २२० वर्ष में पाँच ग्यारह अंगधारी (नक्षत्र,
प्रत्येक प्राचार्यका ममय हक्कीम बाईम वर्ष गिना जाय तो जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, कस), और फिर ११८ वर्षमें यह अन्तर लगभग ठीक बेठ जाना है। सुभद्र, जयभद्र, यशोयाहु और लोहार्य ये चार पाचाराङ्ग
वीर-निर्वाणमे लोहार्य तक अढाईम श्राचार्य बतलाये धारी हुए, अर्थात् वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष बाद तक ये सब गये हैं और उन मबका संयुक्त काल ६८३ वर्ष, अर्थात् प्राचार्य हो चुके । उनके बाद नीचे लिखी परमग चली- प्रत्येक प्राचार्य के कालकी श्रीमत २४ वर्षके लगभग पढ़ती
विनयंघर, भतिगत, ऋषिगुम, शिवगत (जिन्होंने कि है, और इस तरह दोनो कालोंकी श्रीमत लगभग समान ही अपने गुणोंसे अईदलिपद प्राप्त किया) मन्दरार्य, मित्रवीर,
बैठ जाती। बलदेव, बलमित्र, सिंहबल, वीर वित, पद्मसेन, व्याघ्रहस्ति,
म विवरण मे अब हम म नतीजेपर पहनते हैं कि नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, धर्मसेन,
वीर-निर्वाण के बाद मे विक्रम संवत् ८४० नककी एक अविसिंहसेन, नन्दिषेण, ईश्वरसेन,नन्दषेण अभयसेन, सिद्धसेन,
छिन्न-प्रखंड गुरु-परम्परा इम ग्रन्थमें सुरक्षित है, जो कि अभयसेन, भीमसेन,जिनसेन, शान्तिसेगा.जयसेन, अमितसेन. अब तक अन्य किमी ग्रन्थमें भी नहीं देखी गई और इस (पुमाटगणके अगुमा और सौ वर्ष तक जीनेवाले), इनके दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वका है । अवश्य ही बड़े गुरु भाई कीर्तिषण और फिर उनके शिष्य जिनसेन
__ यह पारातीय मुनियोंके बादकी एक शाखाकी ही परम्परा (प्रन्यकर्ता)।
होगी जो आगे चलकर पुनाट मंत्रके कसमें प्रसिद्ध हुई। इनमेंसे प्रारम्भके चार तो वे ही मालूम होते है जिन्हें हम चरणका अर्थ पं० गजाधरलालजी शास्त्रीने "नयंधर इन्द्रनन्दिने अपने अनावतारमें अंगपूर्व के एक देशको धारण ऋषि, गुम ऋषि" इतना ही किया है, पुराने बचनिकाकार करनेवाले भारतीय मुनि कहा है और जिनके नाम विनय- पं.दौलतगमजीने "नयंधर ऋषि, श्रुति ऋषि, गुमि" पर, भीधर शिवदत्त और हित । विनयंधर और किया है।