________________
तत्त्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज
(लेखक-५० परमानन्द जैन शास्त्री)
6666
तत्त्वार्थसूत्र जैनसमाजका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, शिलालेखोंमें उमास्वाति नामकं साथ गृपिच्छाचार्य
जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्र- नामका भी स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है और एक शिला
दायोंमें थोड़े थोड़स पाठ-भेदकं साथ समान लेग्वमें उनके इस नामका उक्त कारण भी बतलाया रूपस माना जाना है । इसके कर्ता आचार्य उमा- है। इन शिलालेखोंमें उमाम्वातिको 'तदन्वये और म्वाति अपने ममयकं एक बहुत ही बड़े विद्वान हा 'तदीय वंश' जैसे पदोंके द्वारा श्री कुन्दकुन्दाचार्यका गये हैं, जिन्हें कुछ शिलालेखोंमें 'तात्कालिकाशेप- वंशज सूचित किया है और नन्दी संघकी पट्टापलिमें पदार्थवदी' और 'श्रतकवलिदेशीय' तक लिखा है। उन्हें कुन्दकुन्दका पट्टशिष्य लिखा है । इससे दिग मम्प्रदायमें आप 'उमाम्वामी'
प्रकट रूपमें उमाम्वाति दिगम्बर और 'गृद्धपिच्छाचार्य' नामांस भी
प्राचार्य जान पड़ते हैं। दिगम्बर प्रसिद्ध हैं। तत्त्वार्थसूत्रकी अधिकांश
समाजमें श्रापक तत्त्वार्थसूत्र का प्रनियामं कर्ताविषयक जो एक
प्रचार भी सबसे अधिक है और प्रशस्ति-पद्य लिग्वा मिलता है उसमें
सबसे अधिक टीकाएँ भी इसपर उमास्वातिको ‘गृद्भपिच्छोपलक्षित'
दिगम्बर विद्वानों द्वारा ही लिखी लिग्या है + । 'गृद्भपिच्छ' आपका उपनाम था, जो किसी ममय गृद्ध
श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उमास्वाति के पँग्वांकी पीली धारण करने के
* श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा कारगण प्रसिद्ध हुआ था। गृद्भपि
वाचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः। च्छाचार्य नामका उल्लंग्व श्रीविद्या
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यनंद आचार्यन अपन 'श्लोकवार्तिक'
लेखक
च्चरित्रसंजातसुचारद्धिः ।। में और श्री वीरमनाचार्यन अपनी 'धवला' टीकामें श्रभूदुमास्वातिमुनीश्वरोमावाचार्यशब्दोत्तरगृध्रपिच्छः । किया है। इनके अतिरिक्त श्रवणबेलगोलके अनेक
तदन्वयेतत्सदृशोस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥
-शिलालेख नं. ४०,४२,४३,४७,५० +तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् ।
बभूव यरन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रस्मकोण्डकुन्दोदित-चण्डदण्डः।१० वन्दे गणीन्द्रसंजातममास्वामि(ति)मुनीश्वरम् ॥
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। * एतेन गृध्रपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निर
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥११॥ स्ताप्रकृतसूत्रे ।
-श्लोकवार्तिक मप्राशिसंरक्षणमावधानो बभार यो
म प्राणिमंरक्षणमावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षान । तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिदतच्चत्यमुत्ते वि-“वर्तना- तदाप्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोनरगृध्रपिच्छं ॥१२॥ परिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य" इदि दव्वकालो
-शिलालेख नं० १०८ परूविदो।
-धवला, जीवट्ठाण, अनु० ४ * देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर, प्रथमभाग, किरण ३-४, पृ०७८