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भनेकान्त
[वर्ष ४
साथ बैठकर मेरी भावनाका जब पाठ करते हैं उस समयका हुआ है और कहां किस दशामें पड़ा हुआ है ? फ्रांस, अर्मन दृश्य बना ही रमणीय मालूम होता है और हृदय भानन्द प्रादि देशोंने साहित्यकं प्रकाशनमें जो महत्वपूर्ण कार्य किया विभोर हो उठता है। वास्तव में यह भावना मानव जीवनको है उसीका फल है कि वे देश समुन्नत देखे जाते हैं। जिस भादर्श बनाने में बड़ी ही सहायक है।' इन सब भाषणों में देश या जातिका साहित्य और इतिहास नहीं वह देश और वीरशासमके महत्वका दिग्दर्शन करानेके साथ साथ वीरके जाति कभी भी समुन्नत नहीं हो सकती है। जैन साहित्य पवित्रतम शासम पर अमल करने और जैन साहित्यक संरक्षण कितना विशाल और महत्वपूर्ण है इसे बतलानेकी आवश्यकता प्रकाशन एवं प्रचारका कार्य करनेके लिये विशेष जोर दिया नहीं। जैनसाहित्य भारतीय साहित्यमें अपना प्रमुख स्थान गया। और वीरशासमके अहिंसा प्रादि खास सिद्धान्तोंका रखता है। जब तक जैन इतिवृत्तका संकलन न होगा तब इस ढंगसे विवेचन किया गया कि उपस्थित जनता उससे तक भारतीय इतिहासका संकलन भी अधूरा ही रहेगा. इसे बड़ी ही प्रभावित हुई और सभीके दिलों पर यह गहरा अच्छे अच्छे चोटीकं विद्वान मानने लगे प्रभाव पड़ा कि हम वीरशासनकी वास्तविकचर्यास बहुत दूर पुरातत्व-विषयक विपुल सामग्री यत्र तत्र विखरी हुई पड़ी है और उसे अपने जीवनमें ठीक ठीक न उतार सकने के कारण है। हमारे श्वेताम्बर भाइयोंका ध्यान इस ओर बहुत कुछ इतनी अवनत दशाको पहुँच गए हैं। वीरके शासन पर गया है परन्तु दिगम्बर समाजका अपने साहित्य और इतिप्रमाल करना तो दूर उनके शासन सिद्धान्तोंस भी हमारे हासके प्रकाशनादिकी ओर कोई विशेष लक्ष्य नहीं है, वह भाई अधिकांशतः अपरिचित ही हैं। यही कारण है कि हम उससे प्राय: उपेक्षा किये हुए है। ऐसे कार्यों में उसे कोई में , द्वेष, अहंकार और विरोध इतनी अधिक मात्रामें खास दिलचस्पी नहीं है। यही कारण है कि दिगम्बर मागए हैं। स्वार्थतत्परताने तो हमें और भी अधिक पतित समाज अपने ग्रंथोंकी एक मुकम्मल सूची भी अभी तक नहीं बनानेका प्रयत्न किया है। और पारस्परिक फूटने हमें सब बना सका है। जो साहित्य समाजमें प्राण प्रतिष्ठाका कारण तरफसे घेर लिया है। महममें प्रेम है और न संगठन । होता है और जो वीर शासनके सिद्धान्तोंके जाननेका अनुपम वीरशासनके समुदार सिद्धान्तोंका यथार्थ परिज्ञान न होनेसे साधन है, उसके प्रति उपेक्षा होना मानों वीरशासनकी भवउसका यथेष्ट प्रचार भी नहीं हो सका है। उस सिद्धान्तके हेलनाका करना है। जैनसाहित्यका प्रकाशन एवं प्रचार किए प्रतिपादक शास्त्रोंका हम यथेष्ट संरक्षण भी नहीं कर सके बिना वीरके दिग्यशामनका जनताको यथार्थ परिज्ञान कैसे हो हैं। बीरशासनका प्रतिपादक बहुतसा प्राचीन भागम साहित्य सकता है अतः बीरके अनुयायियोंका परम कर्तव्य है कि यद्यपि हमारी लापरवाही मानिस नष्ट हो गया है और जो वेतन-मन-धनसे जैनसाहित्य प्रकाशन एवं प्रचारित करने कुछ इस समय अवशिष्ट है वह उन काल कोठरियों में बन्द का प्रयत्न करें और अपने साहित्यकी एक मुकम्मल सूची पदा जहां वायुका स्पर्श भी नहीं है और जो दीमक-चूहों तय्यार करानेका भी प्रयत्न करें जिससे जनता सहज ही में मादिका भय हो रहा है। जबकि विदेशीय विद्वान हमारे जैनसाहित्यसे परिचित हो सके। दिगम्बरों में इस विषयकी साहित्यकी प्राति तथा प्रकाशित करनेके लिये लाखों रुपया भारी कमीको महसूस करते हुए उपस्थित जनताने दिगम्बर खर्च करते हैं तब हमें इतनी भी खबर नहीं है कि हमारा जैन ग्रंथोंकी एक मुकम्ल सूची बनाने नियं वीरसेवामंदिर साहित्य कितना क्या क्या है, किस किसके द्वारा निर्मित के संचालकोंसे अनुरोध किया और उसे शीघ्र कार्य में परिणत