SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तियोग-रहस्य [सम्पादकीय] •re or n. जैनधर्मके अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अथवा अथवा परमात्मा कहलाता है, जिसकी दो अवस्थाएँ "शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा परस्पर समान हैं-कोई हैं-एक जीवन्मुक्त और दूसरी विदेहमुक्त । इस भेद नहीं-, सबका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही प्रकार पर्यायदृष्टिसे जीवोंके 'संसारी' और 'मिद्ध' है। प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्त दर्शन, अनंत ऐसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं; अथवा अविकसित, ज्ञान, अनंन सुग्व और अनन्त वीर्यादि अनन्त अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्ण-विकसित ऐसे शक्तियोंका आधार है-पिण्ड है। परन्तु अनादि- चार भागोंमें भी उन्हें बाँटा जा सकता है। और कालमे जीवोके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी इस लिये जा अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे मूल प्रकृतियाँ आठ, उत्तर प्रकृतियाँ एकमौ अड़ता- ही उनके पृज्य एवं आराध्य हैं, जो अविकसित या लीस और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असंख्य हैं। इस अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्मगुणोंका विकास कर्म-मलकं कारण जीवोंका अमली म्वभाव आच्छा- सबकं लिये इष्ट है। दिन है, उनकी वे शक्तियाँ अविकमित हैं और वे ऐमी स्थिनि होते हुए यह स्पष्ट है कि समारी परतंत्र हुए नाना प्रकारकी पर्यायें धारण करते हुए जीवोंका हित इमीमें है कि वे अपनी विभाव-परिणति नज़र आते हैं। अनेक अवस्थाओंको लिये हुए को छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने अर्थात् मिद्धिको मंसारका जितना भी प्राणिवर्ग है वह मब उमी कर्म- प्राप्त करनेका यत्न करें। इसके लिये आत्म-गुणोंका मलका परिणाम है-उमीकं भेदसं यह सब जीव- परिचय चाहिये, गुणोंमें वर्द्धमान अनुगग चाहिये जगत भेदरूप है; और जीवकी इस अवस्थाको और विकास-मागकी ढ श्रद्धा चाहिये । बिना अनु'विभाव-परिणति' कहते हैं । जबतक किमी जीवकी गगक किमी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अनयह विभाव-परिणति बनी रहती है, तब तक वह नुगगी अथवा अभक्त-हृदय गुणग्रहणका पात्र ही 'संमारी' कहलाता है और तभी तक उस संसाग्में नहीं, बिना परिचयके अनुगग बढ़ाया नहीं जा सकता कर्मानुमार नाना प्रकार के रूप धारण करके परिभ्रमण और बिना विकास-मार्गकी दृढ श्रद्धाके गुणोंके करना तथा दुःख उठाना होता है; जब योग्य साधनोंके विकासको और यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती । बलपर यह विभाव-परिणति मिट जाती है-श्रात्मामें और इस लिये अपना हिन एवं विकाम चाहनेवालोंको कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं रहना-और उसका निज उन पृज्य महापुरुषों अथवा सिद्धान्माओंकी शरणमें स्वभाव सर्वाङ्गरूपसं अथवा पूर्णतया विकसित हो जाना चाहिये-उनकी उपासना करनी चाहिये, जाना है, तब वह जीवात्मा संमार-परिभ्रमणसे उनके गुणोंमें अनुगग बढ़ाना चाहिये और उन्हें छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और मुक्त, सिद्ध अपना मार्ग-प्रदर्शक मानकर उनके नक्शे कदमपर
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy