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अनेकान्त
[वर्ष ४
भारतमानाको ऐसे ही नवयुवकोंकी आवश्यकता है जो है कि हम लोगोने अपने घरसे बाहर जाकर अन्य जानियां उसकी इम निराश्रित श्रात्माको शान्ति दे सकें। स्वामी के सामने अपने साहित्यरत्नोंको तुलनादिके लिए नहीं रक्खा । विवेकानन्दका कथन है कि विदेशमें धर्मप्रचारके द्वारा अत: जैन-साहित्यको और खासकर लुमप्राय जैनमाहित्य ही हमारी संकीर्णता दूर हो सकती है। जैनसमाज और को खोजकर प्रकाशित करने तथा प्रचार करनेकी अत्यंत जैनधर्मकी संकीर्णताका एकमात्र कारण अपने धर्मका अावश्यकता है । श्राज हमारा अगणित जैनसाहित्य प्रचार न करना है । स्वामीजी भारतकी संकीर्णताको विदेश मन्दिरोंकी कालकोठरियामें पड़ा पड़ा गल सड़ रहा है और में धर्म-प्रचार द्वारा ही दूर करनेका उपदेश दे गये हैं । दीमको अादिके द्वारा नष्ट-भ्रष्ट किया जारहा है ! जानिके बिलकुल उमी ढंगसे हम कह सकते हैं कि जनजाति और कर्णधार कहलाने वाले और शास्त्रोंके अधिकारी उसे अाजन्म
जैनधर्मकी मंकीर्णताको देशमें धर्म-प्रचार-द्वारा ही निवारण बन्दीके समान बन्द किए हुए हैं ! उनकी कृपासे आज कर मकत हैं।
हमारे जैनधर्मका दरवाजा दूमरीके लिए प्रायः बन्द है ! ___धर्म-प्रचारकी व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्दजी जब तक नगर नगरमें प्रचारक संस्थायें और लुतप्राय जैन ने अपने एक भाषणमें कहा था कि-"भारतके पतन साहित्यकी उद्धारक संस्थायें न होगी और जातिके प्रचारक
और दुःग्व-दरिद्रताका मुख्य कारण यह है कि उसने अपने तथा रिसर्च स्कालर्स (Research scholars) तनकार्यक्षेत्रको मंकुचित कर लिया था। वह शामककी तरह मन-धन से माहित्यके अनुसंधान तथा प्रचारके कार्यको न दरवाजा बन्द करके बैठ गया था। उसने मत्यकी इच्छा करेंगे, तब तक यह जनजाति कभी भी अपनी संकीर्णता रखनेवाली प्रार्येतर दृमरी जातियोंके लिए अपने रत्नाके को दूर कर अपनेको भारतकी उन्ननिशील जानियोके समकक्ष भण्डारको-जीवन-प्रद मत्य रत्नांके भण्डारको—ग्योला खड़ा करनेमें समर्थ नहीं हो सकती और न अपनी तथा नहीं ।" हम लोगोंके पतनका भी सबसे मुख्य कारण यही अपने धर्मकी कोई प्रगति ही कर सकती है।
बुझता दीपक
धोय धाय कर अन्तस्तल में
जग बदला,कलिका मुरझाई, धधक रही है ज्वाला ,
उजड़ गया नव - उपवन, ग्वण्ड खण्ड हो टूट गई है
उममें पनप रहा मुस्काकर चिर-संचित - मणिमाला !
मुझ दुखिनी का यौवन ! (२)
(४) उमड़ पड़ा पाखंड शाकिनी
पर सँभलो यह मुस्काना है रूप हुई सुरबाला ,
उस दीपक की ज्वाला , बिग्बर पड़ा है प्यार, उलटकर
जो बुझने पर ज्योतिर्मय हो प्रेम - सुधा का प्याला !
करदे श्याम - उजाला । ( श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' )